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________________ गा० २३] पयडिसंकमभेदणिद्देसो १५ ३१. संपहि चउण्हमेदेसि संकमाणं मज्झे पयडिसंकमस्स ताव भेदपदुप्पायणढमुत्तरसुत्तमाह ॐ पयडिसंकमो दुविहो । तं जहा-- एगेगपयडिसंकमो पयडिहाणसंकमो च । ___$३२. एत्थ मूलपयडिसंकमो णस्थि, सहावदो चेव मूलपयडीणमण्णोण्णविसयसंकंतीए अभावादो। तम्हा उत्तरपयडिसंकमो चेव दुविहो सुत्ते परूविदो । तत्थेगेगपयडिसंकमो णाम मिच्छत्तादिपयडीणं पुध पुध णिरुंभणं काऊण संकमगवेसणा। तहा एकम्मि समए जत्तियाणं पयडीणं संकमसंभवो ताओ एक्कदो काऊण संकमपरिक्खा पयडिट्ठाणसंकमो भण्णइ; ठाणसहस्स समुदायवाचयस्स गहणादो। एदमुभयप्पयं पयडिसंकमं ताव वत्तइस्सामो त्ति जाणावणट्ठमुवरिमसुत्तं भणइ * पयडिसंकमे पयदं। ६ ३३. पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेससंकमाणं मज्झे पयडिसंकमे ताव पयदमिदि शेष अधिकारोंकी भी यह विधि सिद्ध हो जाती है, अतः अन्यत्र इस रूपसे प्ररूपणा नहीं की है। विशेषार्थ-किसी भी शास्त्रके प्रारम्भमें उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम इन चारका व्याख्यान करना आवश्यक है। इससे उस शास्त्रमें वर्णित विषय और उसके अधिकार आदिका पता लग जाता है । इसी दृष्टिसे चूर्णिसूत्रकारने इन चारका अपने अवान्तर भेदोंके साथ यहाँ वर्णन किया है तथापि संक्रमके जो चार अर्थाधिकार बतलाये हैं वे ही अनुगम व्यपदेशको प्राप्त होते हैं ऐसा यहाँ जानना चाहिये। यहां पर अन्तमें यह शंका की गई है कि संक्रमके प्रारम्भमें जैसे इन उपक्रम आदिका वर्णन किया है उसी प्रकार अन्य पेजदोसविहत्ति आदि चौदह अधिकारोंके प्रारम्भमें इनका वर्णन क्यों नहीं किया। टीकाकारने इसका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि जैसे मध्यमें रखा हुआ दीपक आगे और पीछे सर्वत्र प्रकाश देता है वैसे ही यह महाधिकार सबके मध्यम है अतः यहां उनका उल्लेख कर देनेसे सर्वत्र वे अपने अपने अधिकारके नामानुरूप जान लेने चाहिए । ३१. अब इन चारों संक्रमोंमें आये हुये प्रकृतिसंक्रमके भेद दिखलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * प्रकृतिसंक्रम दो प्रकारका है। यथा-एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम। $३२. यहाँ पर मूल प्रकृतिसंक्रम नहीं है, क्योंकि स्वभावसे ही मूल प्रकृतियोंका परस्परमें संक्रम नहीं होता, इसलिये सूत्र में उत्तरप्रकृतिसंक्रम ही दो प्रकारका बतलाया है। इनमेंसे मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंका पृथक पृथक् संक्रमका विचार करना एकैकप्रकृतिसंक्रम कहलाता है। तथा एक समयमें जितनी प्रकृतियोंका संक्रम सम्भव है उनको एकत्रित करके संक्रमका विचार करना प्रकृतिस्थानसंक्रम कहलाता है, क्यों कि यहां पर समुदायवाची स्थान शब्दका ग्रहण किया है । इन दोनों प्रकारके प्रकृतिसंक्रमको आगे बतलायेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * प्रकृतिसंक्रम प्रकृत है। $ ३३. संक्रमके प्रकृतिसंक्रम स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम इन चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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