SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्विदिकमे उक्कडगा मीमांसा ५२०. समयाहियदोआवलियमेत्तट्ठिदीणमेत्थ पवेसदंसणा दो । ९५३१. एवमोकडणासंकमस्स अट्ठपदपरूवणा समत्ता । संपहि उकडणासंकमस्स अट्ठपदपरूवणट्टमुत्तरसु तावयारो गा० ५८ ] * जाओ बति द्विदीओ तासि द्विदीयं पुब्वपिबद्ध द्विदिम हि किच पिव्वाघादेण उक्कड्ड पाए अइच्छावला आवलिया । ९५२२. एदस्स सुत्तस्स अत्थो परूविज । तं जहा -- उक्कड्डणा णाम कम्मपदेसाणं पुव्विल्लट्ठिदीदो अहिणवबंध संबंघेण द्विदिवड्ढावणं । सा पुण दुविहा -- णिव्वाघादविसया वाघादविसया चेदि । जत्थावलियमेत्ताइच्छावणाए आवलियअसंखेज्जदिभागादिणिक्खेवपडिबद्धा परिघादो णत्थि तम्मि णिव्वाघादभावो णाम भवदि, आवलियमे ताइच्छावणाए तारिसणिक्खेव सहगदाए पडिघादस्स वाघादत्तेणेह विवक्खियत्तादो । कम्मि विसए एवं विद्यादो णत्थि ? उच्चदे - जत्थ संतकम्मादो उवरि समउत्तरादिकमेण द्विदिबंधो वढमाणो आवलियासंखेजभाग सहिदावलियमेत्तो वडिओ होइ तत्तो पहुडि उवरि सव्वत्थेव पिव्याघादविसओ जाव उक्कस्सट्ठिदिबंधो त्ति । एवंविहणिव्वाघादपरूवणापडिबद्धमेदं सुतं । तत्थ जाओ बज्झति द्विदीओ तासिमुवरि पुव्वणिबद्धट्ठिदी उडिदि । तिस्से २५३ $ ५२०. क्यों कि उत्कृष्ट निक्षेपके प्रमाणसे एक समय अधिक दो आवलिप्रमाण स्थितियों की इसमें वृद्धि देखी जाती है । उदाहरण - उत्कृष्ट निक्षेप ४७६७; एक समय अधिक दो आवलि ३३; ४७६७ + ३३ = ४८०० उत्कृष्ट स्थितिबन्ध | २१. इस प्रकार अपकर्षण संक्रमके अर्थपदका कथन समाप्त हुआ। अब उत्कर्षण संकमके अर्थपदका कथन करनेके लिये श्रागेका सूत्र कहते हैं * जो स्थितियां बंधती हैं उन स्थितियोंकी, पूर्वमें बंधी हुई स्थितियोंका निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण होने पर, अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण होती है । § ५२२. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा - नवीन बन्धके सम्बन्धसे पूर्व की स्थिति में से कर्मपरमाणुओं की स्थितिका बढ़ाना उत्कर्षण है। उसके दो भेद हैं-निर्व्याघातविषयक और व्याघातविषयक | जहाँ आवलिके असंख्यातवें भाग आदि निक्षेप से सम्बन्ध रखनेवाली एक अवलिप्रमाण अतिस्थापनाका प्रतिघात नहीं होता वहाँ निर्व्याघातविषयक प्रतिस्थापना होती है, क्योंकि उस प्रकारके निक्षेपके साथ प्राप्त हुई एक आवनिप्रमाण अतिस्थापनाका प्रतिघात ही यहाँ व्याघातरूपसे विवक्षित है । शंका- इस प्रकारका व्याघात कहाँ नहीं होता ? - समाधान — जहाँ सत्कर्मसे ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे स्थितिबन्ध वृद्धिको प्राप्त होता हुआ एक आवलिके असंख्यातवें भाग से युक्त एक आवलि बढ़ जाता है वहाँसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक सर्वत्र ही निघातविषयक उत्कर्षण होता है । इस प्रकारकी निर्व्याघातविषयक प्ररूपणा से सम्बन्ध रखनेवाला यह सूत्र है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy