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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [धगो ६ * वाघादेण अइच्छावणा एका, जेणावलिया अदिरित्ता होइ। ६५०६. वाघादविसया एका अइच्छावणा संभवइ, जेणावलिया अदिरित्ता लब्भइ । तिस्से पमाणणिण्णयमिदाणिं कस्सामो त्ति पइण्णावक्कमेदं । * तं जहा। ६५०७. सुगममेदं पुच्छावकं । * हिदिघावं करेंतेण खंडयमागाइदं । ५०८. जेण हिदिघादं करेंतेण द्विदिखंडयमागाइदं । तस्स वाघादेणुकस्सिया अइच्छावणा आवलियादिरित्ता होइ ति सुत्तत्थसंबंधो। जइ वि सम्बत्थेव द्विदिखंडए आवलियादिरित्ता अइच्छावणा लब्भइ तो वि उक्कस्सडिदिखंडयस्सेव गहणमिह कायव्वं, एसा उक्कस्सिया अइच्छावणा वाघादे त्ति उवसंहारवक्कदंसणादो। तं पुण उकस्सयं हिदिखंडयं केवडियं ? जावदिया उक्कस्सिया कम्मट्ठिदी अंतोकोडाकोडीए ऊणिया तत्तियमेत्तमुक्कस्सयं द्विदिखंडयं । किमेदम्मि विदिखंडए आगाइदे पढमसमयप्पहुडि सवत्थेव उक्कस्सिया अइच्छावणा होइ आहो अत्थि को विसेसो त्ति आसंकिय विसेससंभवपदुप्पायणट्टमुवरिमो सुत्तोवण्णासो __* व्याघातकी अपेक्षा एक अतिस्थापना होती है, कारण कि वह एक आवलिसे अतिरिक्त होती है। ६५०६ व्याघात विषयक एक अतिस्थापना सम्भव है, कारण कि वह एक आवलिसे अतिरिक्त प्राप्त होती है। अब उसके प्रमाणका निर्णय करते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है। * यथा६५०७. यह पृच्छासूत्र सुगम है । * स्थितिका घात करते हुए जिसने स्थितिकाण्डकको ग्रहण किया है । ६५०८. जिसने स्थितिका घात करते हुए स्थितिकाण्डकको ग्रहण किया है उसके व्याघातकी अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापना एक आवलिसे अधिक होती है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। यद्यपि सर्वत्र ही स्थितिका घात होते समय एक आवलिसे अधिक अतिस्थापना प्राप्त होती है तो भी यहाँ पर उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यह उत्कृष्ट अतिस्थापना व्याघातके समय होती है इस प्रकार यह उपसंहार वाक्य देखा जाता है। शंका-वह उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक कितना है ? समाधान-जितनी उत्कृष्ट कर्मस्थिति है उसमें से अन्तःकोड़ाकोड़ीके कम कर देने पर जो स्थिति शेष रहे उतना उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक होता है । क्या इस स्थितिकाण्डकके ग्रहण करने पर प्रथम समयसे लेकर सर्वत्र ही उत्कृष्ट अतिस्थापना होती है या इसमें कोई विशेषता है इस प्रकारकी आशंका करके इसमें जो विशेष सम्भव है उसका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका उपन्यास करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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