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________________ गा० ५८] टिदिसंकमे ओकडुणामीमांसा २४७ उदयावलियचरिमसमओ त्ति । पुणो तदणंतरोवरिमाए एकिस्से उदयावलियबाहिरद्विदीए पुवोकड्डिददव्वस्सासंखेजे भागे णिक्खिवदि, तत्तो उवरि अइच्छावणाविसए णिक्खेवसंभवाभावादो । एसा परूवणा उदयादो समयाहियदोआवलियमेत्तमुल्लंघिय परदोवहिदाए द्विदीए कदा। संपहि उदयादो पहुडि दुसमयाहियदोआवलियमेत्तमुल्लंघिय परदो अवट्ठिदाए वि द्विदीए एसो चेव कमो। णवरि तिस्से द्विदीए ओकड्डणादव्वस्स असंखेजलोगपडिभागियब्भागमुदयावलियभंतरे पुव्वं व णिक्खिविय सेसासंखेजे भागे घेत्तूणुदयावलियबाहिराणंतरविदीए बहुअं णिक्खिवदि तदणंतरोवरिमद्विदीए तत्तो विसेसहीणं सव्वमेव णिक्खिवदि । सव्वत्थ विसेसहाणिभागहारो पलिदोवमासंखेजभागमेत्तो । एवमेगुत्तरकमेण णिक्खेवं वड्डाविय उवरिमट्टिदीणं पि परूवणा एवं चेव अणुगंतव्वा । सव्वत्थ वि ओकड्डिदट्ठिदि मोत्तूण तदणंतरहेट्ठिमद्विदिप्पहुडि आवलियमेत्ता अइच्छावणा घेत्तव्वा । भागहारविसेसो च सव्वत्थ णायव्वो, सव्वासिं द्विदीणमोकड्डणभागहारस्स सरिसत्ताणुवलंभादो । एवं ताव णेदव्वं जाव उक्कस्सओ णिक्खेवो ति। तस्स पमाणाणुगममुवरि कस्सामो । एवं णिव्वाघादेणोकड्डणाए अत्थपदपरूवणा कया । को णिवाघादो णाम ? द्विदिखंडयघादस्साभावो।। ६५०५. संपहि वाघादविसयाइच्छावणाए परूवणहमिदमाहउदयावलिके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक विशेषहीन विशेषहीन द्रव्य देता है। फिर इससे आगेकी उदयावलिके बाहरकी एक स्थितिमें पूर्वमें अपकर्षित हुए द्रव्यके असंख्यात बहुभागका निक्षेप करता है, क्योंकि इससे आगेकी स्थितियाँ अतिस्थापनासम्बन्धी हैं अतः उनमें निक्षेप नहीं हो सकता। यह प्ररूपणा उदय समयसे लेकर एक समय अधिक दो आवलियोंको उल्लंघन करके आगे जो स्थिति अवस्थित है उसकी अपेक्षासे की है । अब उदय समयसे लेकर दो समय अधिक दो आवलिप्रमाण स्थितियोंको उल्लंघन करके इससे आगे जो स्थिति स्थित है उसकी अपेक्षासे भी यही क्रम जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि उस स्थितिका जो अपकर्षण द्रव्य है उसमें असंख्यात लोकका भाग देकर जो एक भाग आवे उसे उदयावलिके भीतर पहलेके समान निक्षिप्त करके शेष असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यको ग्रहण करके उसमेंसे उदयावलिके बाहर प्रथम स्थितिमें बहुत द्रव्यको निक्षिप्त करता है और उससे अनन्तरवर्ती आगेकी स्थिति में विशेषहीन सब द्रव्यका निक्षेप करता है । यहाँ सर्वत्र विशेषहानिका भागहार पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण जानना चाहिये । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक निक्षेपको बढ़ाकर आगेकी स्थितियोंका कथन भी इसी प्रकार जानना चाहिये। मात्र सर्वत्र अपकर्षित स्थितिको छोड़कर उससे नीचे अनन्तरवती स्थितिसे लेकर एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना ग्रहण करनी चाहिये। तथा भागहारविशेषको भी सर्वत्र जान लेना चाहिये, क्योंकि सब स्थितियोंका अपकर्षण भागहार एक समान नहीं पाया जाता। इस प्रकार उत्कृष्ट निक्षेपके प्राप्त होने तक कथन करना चाहिये । उत्कृष्ट निक्षेपके प्रमाणका विचार आगे करेंगे । इस प्रकार निर्व्याघातरूपसे अपकर्षणाके अर्थपदका कथन किया । शंका-निर्व्याघात किसे कहते हैं ? समाधान-स्थितिकाण्डकघातका अभाव निर्व्याघात कहलाता है। $ ५०५. अब व्याघातविषयक अतिस्थापनाका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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