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________________ गा० ५८ ] वड्डीए अप्पाबहुअं २४१ संखे० भागहाणि० असंखे०गुणा । संखे०भागवड्डि. विसे० । अवट्ठि० अणंतगुणा । मणुस्सेसु सव्वत्थोवा अवत्त । संखे०गुणवड्डि० संखे०गुणा । संखे०गुणहाणि० संखे०गुणा । संखेभागवड्डि० संखे०गुणा। संखेजभागहाणि० असंखे०गुणा । अवडि• असंखे०गुणा । एवं मणुसपज०-मणुसिणी० । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । सेससव्वमग्गणासु भुजगारभंगो। एवं बड्डी समत्ता । तदो पयडिट्ठाणसंकमो समत्तो । एवं पयडिसंकमो समत्तो। भागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव विशेष अधिक हैं । उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्योंमें अवक्तव्यपदके संक्रामक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितपदके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिये। शेष सब मार्गणाओंमें भुजगारके समान भंग है। इसप्रकार वृद्धिके समाप्त होनेपर प्रकृतिसंक्रमस्थान समाप्त हुआ। इसप्रकार प्रकृतिसंक्रम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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