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________________ २२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगा६ ___ चउपहं संकामया संखेजगुणा । $ ४४८. कुदो ? संगतोभाविदचदुसंकामयखवयदुविहलोहसंकामयचउवीससंतकम्मिओवसामयरासिस्स पहाणत्तोवलंभादो। तदो जइ वि पुविल्लसंचयकालादो एत्थतणसंचयकालो विसेसहीणो तो वि चउवीससंतकम्मियरासिमाहप्पादो संखेजगुणो त्ति सिद्धं । ॐ सत्तण्हं संकामया विसेसाहिया । $ ४४९. चउवीससंतकम्मिओवसामयदुविहलोहोवसामणकालादो विसेसाहियदुविहमायोवसामणकालसंचिदत्तादो । 8 वीसाए संकामया विसेसाहिया । ४५०. जइ वि दोण्हमेदेसिं चउवीससंतकम्मिया संकामया तो वि सत्तसंकामयकालादो वीससंकामयकालस्स छण्णोकसायोवसामणद्धपडिबद्धस्स विसेसाहियत्तमस्सिऊण तत्तो एदेसिं विसेसाहियत्तमविरुद्धं । एकिस्से संकामया संखेजगुणा । ४५१. कुदो ? मायासंकामयखवयरासिस्स अंतोमुहुत्तकालसंचिदस्स विवक्खियत्तादो । * उनसे चार प्रकृतियोंके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। ६४४८. क्योंकि यहाँ पर चार प्रकृतियों के संक्रामक क्षपक जीवों के साथ दो प्रकारके लोभका संक्रम करनेवाले चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवोंकी प्रधानता स्वीकार की गई है। इसलिए यद्यपि पूर्वोक्त स्थानके संचयकाल से इस स्थानका संचय काल विशेष हीन होता है तो भी चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाली राशिकी प्रधानतासे पूर्वोक्त राशिसे यह राशि संख्यातगुणी है यह बात सिद्ध है। * उनसे सात प्रकृतियोंके संक्रामक जीव विशेष अधिक हैं। ६४४६. क्योंकि जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीव दो प्रकारके लोभका उपशम कर रहे हैं उनके दो प्रकारके लोभके उपशम कालसे विशेष अधिक जो दो प्रकारकी मायाका उपशम काल है उसमें संचित हुए जीव यहाँ पर लिये गये हैं। * उनसे बीस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव विशेष अधिक हैं। ६४३०. यद्यपि ७ और २० इन दोनों स्थानोंके संक्रामक जीव चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले होते हैं तो भी सात प्रकृतियोंके संक्रामकके कालसे बीस प्रकृतियोंके संक्रामकका काल छह नोकषायोंके उपशामनाकालसे सम्बन्ध रखनेवाला होनेके कारण विशेष अधिक होता है इसलिये सात प्रकृतियोंके संक्रामक जीवोंसे बीस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव विशेष अधिक होते हैं यह बात अविरुद्ध है। * उनसे एक प्रकृतिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। 6 ४५१. क्योंकि मायाकी संक्रामक जो क्षाकराशि अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर संचित होती है वह यहाँ विवक्षित है। १. श्रा०प्रतौ -सामणद्धा पडिबद्धा सविसेसाहियत्त इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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