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________________ गा० ५८] पयडिसंकमाणाणं अप्पाबहुअं २२३ मेदेसिं ण विरुज्झदे, इगिवीससंतकम्मिओवसामएहिंतो चउवीससंतकम्मिओवसामयाणं' संखेजगुणत्तदंसणादो । ॐ पंचएहं संकामया संखेजगुणा । $ ४४४. कुदो ? इगिवीस-चउवीससंतकम्मिओवसामयाणमंतोमुहुत्तसमयूणदोआवलियसंचिदाणमिहोवलंभादो। अट्ठएहं संकामया विसेसाहिया। ४४५. किं कारणं ? इगिवीससंतकम्मियोवसामयस्स दुविहमायोवसामणकालादो दुविहमाणोवसामणद्धाए विसेसाहियत्तदंसणादो चउवीससंतकम्मिओवसामगसमऊणदोआवलिसंचयस्स उहयत्त समाणत्तदंसणादो च । अट्ठारसण्हं संकामया विसेसाहिया । $ ४४६. एत्थ वि कारणं माणोवसामणद्धादो विसेसाहियकोहोवसामणद्धादो वि छण्णोकसाओवसामणकालस्स विसेसाहियत्तं दट्ठव्वं । 3 एगूणवीसाए संकामया विसेसाहिया । ४४७. एत्थ वि कारणमित्थिवेदोवसामणाकालस्स छण्णोकसायोवसामणद्धादो विसेसाहियत्तमणुगंतव्वं । तो भी ये संख्यातगुणे होते हैं यह बात विरोधको नहीं प्राप्त होती, क्योंकि प्रकृतमें इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवोंसे चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाले उपशामक जीव संख्यातगुणे देखे जाते हैं। * उनसे पाँच प्रकृतियोंके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। ६४४४. क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त कालमें संचित हुए इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवोंका और एक समयकम दो श्रावलि कालमें संचित हुए चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवोंका यहाँपर ग्रहण किया है। * उनसे आठ प्रकृतियोंके संक्रामक जीव विशेष अधिक हैं। ६४४५. क्योंकि इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवोंके दो प्रकारकी मायाके उपशामन कालसे दो प्रकारके मानका उपशामन काल विशेष अधिक देखा जाता है । तथा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामकों के एक समय कम दो आवलि कालके भीतर होनेवाला संचय उभयत्र समान देखा जाता है। * उनसे अठारह प्रकृतियोंके संक्रामक जीव विशेष अधिक हैं। 5 ४४६. यहाँ विशेष अधिकका कारण यह है कि मानके उपशामन कालसे विशेष अधिक जो क्रोधका उपशामन काल है उससे भी छह नोकषायोंका उपशामन काल विशेष अधिक देखा जाता है । * उनसे उन्नीस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव विशेष अधिक हैं। ४४७. यहाँ भी छह नोकषायोंके उपशामन कालसे स्त्रीवेदका उपशामन काल विशेष अधिक होता है यह कारण जानना चाहिये । १. ता.प्रतौ -सामणाणं इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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