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________________ °१८ गा०५८] पयडिसंकमट्ठाणाणं एवजीवेण अंतरं २०७ लद्धप्पलाहस्स छण्हं संकमस्स माणसंजलणोवसामणविहाणेणंतरमाढविय तत्तो दुविहमायोवसामणाए तिण्हं संकममाढविय मायासंजलणोवसामणाए तदंतरस्सादि कादण उवरिं चढिय पुणो हेट्ठा ओयरमाणो तिविहमाय-तिविहमाण-तिविहकोह-सत्तणोकसायोकड्डणाणंतरं जहाकम छण्डं णवण्हं बारसण्हं एगूणवीसाए च संकमट्ठाणाणमंतरं समाणेइ । सेसाणं पुण हेट्ठा ओयरिय पुणो वि सव्वलहुमुवरि चढिऊण सगसगविसए अंतरं समाणेइ । एदं जहण्णंतरं । ४०७. उक्स्संतरपरूवणमिदाणिं कस्सामो–देव-णेरइयाणमण्णदरो चउवीससंतकम्मिओ वेदगसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउअमणुस्सेसुप्पन्जिय गम्भादिअट्ठवस्साणमुवरि सव्वलहुं विसुद्धो होऊण संजमं पडिवजिय दंसणमोहणीयं खविय उवसमसेढिमारूढो तिण्हमट्ठारसण्हं चढमाणो चेव अंतरमुप्पाइय छण्हं णवण्हें बारसण्हमेगूणवीसाए च ओयरमाणो अंतरमुप्पाइय समोइण्णो देसूणपुव्वकोडिमेत्तकालं संजममणुपालिय कालं कादूण तेत्तीसंसागरोवमाउएसु देवेसुववण्णो। कमेण तत्तो चुदो संतो पुव्वकोडाउअमणुस्सेसुप्पण्णो अंतोमुहुत्तावसेसे उवसमसेढिमारुहिय जहाकम सव्वेसिमंतरं समाणेदि । णवरि बारसण्हं तिण्हं च संकमट्ठाणस्स खबगसेढीए लद्धमंतरं कायव्वं । एवमोघेण सव्वसंकमट्ठाणाणमंतरपरूवणा कया । संक्रमस्थानको प्राप्त करके मानसंज्वलनके उपशमद्वारा इस स्थानके अन्तरका प्रारम्भ करता है। फिर दो प्रकारकी मायाका उपशम हो जाने पर तीन संक्रमस्थानको प्राप्त करता है। फिर ऊपर चढ कर और नीचे उतरकर तीन प्रकारकी माया, तीन प्रकारका मान, तीन प्रकारका क्रोध और सात नोकषाय इनका अपकर्षण करने पर क्रमसे छह, नौ, बारह और उन्नीस प्रकृतिक संक्रमस्थानोंके अन्तरको प्राप्त कर लेता है । तथा नीचे उतर कर और फिरसे अतिशीघ्र उपशमश्रेणि पर चढ़कर शेष स्थानोंका भी अपने अपने स्थानमें अन्तर प्राप्त कर लेता है । यह जघन्य अन्तर है। ६४०७. अब इस समय उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते हैं देव और नारकियोंमेंसे कोई एक चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला वेदक सम्यग्दृष्टि जीव पूर्व कोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर गर्भसे लेकर आठ वर्ष हो जाने पर अतिशीघ्र विशुद्ध होकर संयमको प्राप्त हुआ। फिर दर्शनमोहनीयका क्षय करके उपशमश्रेणि पर चढ़ा। इस प्रकार उपशमश्रेणि पर चढ़ते हुए तीन और अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर उत्पन्न करके तथा छह, नौ, बारह और उन्नीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका उतरते समय अन्तर उत्पन्न करके क्रमसे यह जीव अप्रमत्त व प्रमत्तसंयत हो गया। फिर कुछ कम पूर्व कोटि काल तक संयमका पालन करके मरा और तेतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हो गया। फिर क्रमसे वहाँसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर उपशमश्रेणिपर चढ़कर क्रमसे सब स्थानोंका अन्तर प्राप्त करता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह और तीन प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर क्षपकणिमें प्राप्त करना चाहिये । 'इस प्रकार ओघसे सब संक्रमस्थानोंके अन्तरका कथन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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