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________________ २०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ 8 एक्किस्से संकामयस्स पत्थि अंतरं । ४०४. कुदो ? खवयसेढिम्मि लद्धप्पसरूवत्तादो । संपहि उत्तसेससंकमट्ठाणाणमंतरपरूवणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ 8 सेसाणं संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होइ ? । $ ४०५. सुगमं। * जहरणेण अंतोमुहुत्तं,उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ४०६. एत्थ सेसग्गहणेणूणवीसट्ठारस-बारस-णव-छ-तिगसण्णिदाणमिगिवीससंतकम्मियसंबंधिसंकमट्ठाणाणं गहणं कायव्वं । एदेसिं च जहण्णुकस्संतरपरूवणमेदेण सुत्तेण कीरदे । तं जहा—इगिवीससंतकम्मियोवसामगो उवसमसेढीए अंतरकरणसमत्तिसमणंतरमेवाणुपुन्विसंकममाढविय तदो णqसयवेदोवसामणाए एयूणवीससंकामओ होदण इत्थिवेदोक्सामणाकरणेणंतरस्सादि कादण पुणो तस्थेव लद्धप्पसरूवस्स अट्ठारससंकमस्स छण्णोकसायोवसामणाए अंतरमुप्पादिय तम्मि चेव बारससंकममाढविय पुणो पुरिसवेदोवसमेणंतराविय तदो दुविहकोहोवसामणाणंतरं लद्धप्पसरूवस्स णवण्हं संकमट्ठाणस्स कोहसंजलणोवसामणाणंतरमंतरं पारभिय पुणो तत्थ दुविहमाणोवसामणाए * एक प्रकृतिक संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। $ ४०४. क्योंकि इस स्थानकी प्राप्ति क्षपकश्रेणिमें होती है। अब पहले जिन संक्रमस्थानोंका अन्तर कह आये हैं उनके सिवा बचे हुए संक्रमस्थानोंके अन्तरका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * शेष स्थानोंके संक्रामकोंका कितना अन्तरकाल है ? ६४०५. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर है। ६४०६. इस सूत्र में जो 'शेष' पद ग्रहण किया है सो उससे इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले उन्नीस, अठारह, बारह, नौ, छह और तीन प्रकृतिक संक्रमस्थानोंका ग्रहण करना चाहिये । इस सूत्र द्वारा इन स्थानोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका कथन किया गया है। खुलासा इस प्रकार है-जो इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव उपशमश्रेणिमें अन्तरकरणकी समाप्ति के बाद ही आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ करता है। फिर नपुसकवेदका उपशम कर लेनेपर उन्नीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो जाता है और स्त्रीवेदका उपशम करके प्रकृत स्थानके अन्तरका प्रारम्भ करता है। फिर वहीं पर अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त करके छह नोकषायोंकी उपशामना द्वारा इस स्थानके अन्तरका प्रारम्भ करता है। फिर वहींपर बारह प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त करके पुरुषवेदकी उपशामनाद्वारा इस स्थानका अन्तर करता है। फिर दो प्रकारके क्रोधका उपशम करनेके बाद नौप्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त करके संज्वलन क्रोधके उपशमद्वारा इस स्थानके अन्तरका प्रारम्भ करता है। फिर वहींपर दो प्रकारके मानका उपशम हो जाने पर छहप्रकृतिक १. ता०प्रतौ देसूणाणि इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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