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________________ गा० २३] णिक्खेवणयपरूवणा ® संगह-ववहारा कालसंकममवणेति । $ १९. एत्थ संगह-ववहारा सव्वे संकमे इच्छंति त्ति अहियारसंबंधो कायव्यो, दव्वट्ठिएसु सव्वेसिं णामादीणं संभवाविहारादो। णवरि कालसंकममवणेति । कुदो ? संगहो ताव संक्खित्तवत्थुग्गहणलक्खणो । सामण्णावेक्खाए एको चेव कालो, ण तत्थ पुव्वावरीभावसंभवो, जेण तस्स संकमो होज्ज त्ति एदेणाहिप्पाएण कालसंकममवणेइ । ववहारणयस्स वि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि कालसंकममवणेइ त्ति वुत्ते अदीदकालो सो चेव होऊण ण पुणो आगच्छइ, तस्सादीदत्तादो । ण चाण्णम्मि आगए संते अण्णस्स संकमो वोत्तुं जुत्तो, अव्ववत्थावत्तीदो। तम्हा कालसंकममेसो णेच्छइ त्ति घेत्तव्वं । ॐ उजुसुदो एदं च ठवणं च अवणेइ। २०. छण्हं णिक्खेवाणं मज्झे उजुसुदो एदमणंतरपरूविदं कालसंकमं ठवणासंकमं च अवणेइ, सेसचत्तारि संकमे इच्छइ चि वुत्तं होइ । कुदो दोण्हमेदेसिमणब्भुवगमो?ण, एदस्स विसए तब्भावसारिच्छसामण्णाणमभावेण तदुभयसंभवाणुवलंभादो। कधमुजुसुदे पज्जवट्टिए णाम-दव्व-खेत्तसंकमाणं संभवो. ? ण, उजुसुदवयणविच्छेद * संग्रहनय और व्यवहारनय कालसंक्रमको स्वीकार नहीं करते हैं। $ १९. यहांपर संग्रह और व्यवहारनय सब संक्रमोंको स्वीकार करते हैं ऐसा प्रकरणके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय नामादिक सबको विषय करते हैं ऐसा माननेमें कोई विरोध नहीं आता है। किन्तु ये दोनों नय कालसंक्रमको स्वीकार नहीं करते, क्योंकि संग्रहनय तो संग्रह की गई वस्तुको ग्रहण करता है। परन्तु सामान्यकी अपेक्षा काल एक ही है। उसमें पूर्वकाल और उत्तरकाल ऐसे भेद सम्भव नहीं हैं जिससे उसका संक्रम होवे। इस प्रकार इस अभियप्रायसे संग्रहनय कालसंक्रमको नहीं स्वीकार करता। व्यवहारनयकी अपेक्षा भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। किन्तु व्यवहारनय कालसंक्रमको नहीं स्वीकार करता ऐसा कहनेपर यह युक्ति देनी चाहिये कि अतीत काल वही होकर फिरसे नहीं आता है, क्योंकि वह बीत चुका है । और अन्य कालके आनेपर अन्य कालका संक्रम कहना युक्त नहीं है, अन्यथा अव्यवस्था दोष आता है। इसलिये व्यवहारनय भी कालसंक्रमको स्वीकार नहीं करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। * ऋजुसूत्रनय इसको और स्थापनासंक्रमको स्वीकार नहीं करता। ___६ २० ऋजुसूत्रनय छह संक्रमोंमेंसे इस पूर्वमें कहे गये कालसंक्रमको और स्थापना संक्रमको स्वीकार नहीं करता, शेष चार संक्रमोंको स्वीकार करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-ऋजुसूत्रनय इन दोनों संक्रमोंको क्यों स्वीकार नहीं करता ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तद्भावसादृश्यसामान्य ऋजुसूत्रका विषय नहीं होनेसे इन दोनों को उसका विषय मानना सम्भव नहीं है। शंका-ऋजुसूत्रनयमें नाम, द्रव्य और क्षेत्र संक्रम कैसे सम्भव हैं। १. ता. प्रतौ तस्सादीह (द) त्तादो ? ण चाणु ( एण ) म्मि इति पाठः। २. ता. प्रतौ -मणब्भुवगमो एदस्स इति पाठः। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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