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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे १६२ सुगममणं ||२५|| ९ ३१५. 'चोहसग णवगमादी' १४, ९, ८, ७, ६५, ४, ३, २, १ एवमेदाणि दस संकमट्ठाणाणि उवसामग - खवगपडिबद्धाणि पुरिसवेदविसए सुण्णट्ठाणाणि हों गाहासुतत्थसंगहो । सुगममन्यत् ||२६|| $ ३१६. 'णव अट्ठ सत्त छक्कं ९, ८, ७, ६, ५, २१ एवमेदाणि सत्त कमाणाणि कोहसायोवजुत्तेसु सुण्णट्ठाणाणि होंति ति सुत्तत्थसमुच्चओ ||२७|| [ बंधगो ६ ९ ३१७. 'सत्तय छक्कं पणगं च० ' ७, ६, ५, १ एवमेदाणि चत्तारि माणकसायोवजुत्तेसु सुण्णट्ठाणाणि होंति त्ति भणिदं होइ । सेसदोकसाएसु णत्थि एसो विचारो, सव्वेसिमेव संकमट्ठाणाणं तत्थासुण्णभावदंसणादो ||२८|| - ९ ३१८. एवमेदीए दिसाए सेसमग्गणासु वि सुण्णट्टाणगवेसणा कायव्वात्ति पदुष्पायणट्ठमुवरिमगाहासुत्तमाह – 'दिट्ठे सुण्णासुण्णे० ' वेद- कसायमग्गणासु सुण्णासुण्णद्वाणपविभागेसु पुव्युत्तकमेण दिट्ठे संते पुणो एदीए दिसाए गदियादिमग्गणासु वि जत्थतत्थाणुपुब्वीए संकमट्ठाणाणं सुण्णासुण्णभावगवेसणा कायव्वाति सुत्तत्थसंबंध ||२९|| है । आशय यह है कि स्त्रीवेद में उन्नीस प्रकृतिक स्थान तकके सब तथा १३, १२ और ११ प्रकृतिक ये तीन इसप्रकार कुल ग्यारह संक्रमस्थान पाये जाते हैं शेष नहीं, इसलिये शेषका यहां निषेध किया है ||२५|| $ ३१५. 'चोहसग णवगमादी' १४, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २ और १ इस प्रकार ये दस संक्रमस्थान पुरुषवेदी उपशामक और क्षपकजीवोंके शून्यस्थान होते हैं यह इस गाथासूत्रका समुच्चयर्थ है । शेष कथन सुगम है । आशय यह है कि पुरुषवेद में पन्द्रह प्रकृतिक स्थान तक्के सब तथा १३, १२, ११ और १० प्रकृतिक ये चार इस प्रकार कुल १३ संक्रमस्थान होते हैं शेष नहीं, इसलिये शेषका यहां निषेध किया है ||२६|| $ ३१६. 'णव अट्ठ सत्त छक्कं' ९, ८, ७, ६, ५, २ और १ इस प्रकार ये सात संक्रमस्थान क्रोधकषायवाले जीवोंमें शून्यस्थान होते हैं यह इस सूत्रका समुच्चयार्थं है । आशय यह है कि क्रोध कषाय १० प्रकृतिक संक्रमस्थान तकके सब तथा ४ और ३ प्रकृतिक ये दो इस प्रकार कुल १६ संक्रमस्थान होते हैं शेष नहीं, इसलिये शेषका यहाँ निषेध किया है ॥ २७ ॥ Jain Education International $ ३१७. 'सत्त य छवकं पणगं च ७, ६, ५ और १ इस प्रकार ये चार संक्रमस्थान मानकषायवाले जीवोंमें शून्यस्थान होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । आशय यह है कि मानकषायमें इन चारके सिवा शेष सब संक्रमस्थान होते हैं, इसलिये यहाँ चार स्थानोंका निषेध किया है। किन्तु शेष दो कषायोंमें यह विचार नहीं है, क्योंकि वहाँ पर सभी संक्रमस्थान अशून्यभावसे देखे जाते हैं ||२८|| $३१८. इस प्रकार इसी पद्धतिसे शेष मार्गणाओं में भी शून्यस्थानोंका विचार कर लेना चाहिये यह दिखलाने के लिये अब आगेका गाथासूत्र कहते हैं - दिट्ठे सुण्णासुण्णे वेद और कषाय मार्गणा में शून्यस्थानों और शून्य स्थानोंके विभागका पूर्वोक्त क्रमसे विचारकर लेनेके बाद फिर इसी पद्धति से गति आदि मार्गणाओं में भी यत्रतत्रानुपूर्वीके क्रमसे संक्रमस्थानों के सद्भाव और असद्भावका विचार कर लेना चाहिये यह इस सूत्रका अभिप्राय है || २ || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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