SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० ४७-४८ ] मग्गणाद्वासु सुष्णद्वाणपरूवणा विरोहाभावादो | 'अणाहारएस पंचैत्र संकमट्ठाणाणि होंति, सत्तावीसादीणमिगिवीसपजंताणं' चैव वावीसवज्जाणं तत्थ संभवोवलंभादो । 'एयट्ठाणं अभविएसु' । कुदो ? पणुवी संकमा सेकस्सेव तत्थ संभवदंसणादो ||२२|| $ ३१२, एवमेत्तिएण पबंधेण मग्गणट्ठाणेसु संकमट्टाणाणं गवेसणं काढूण संपहि तेसु चैव सुण्णद्वाणपरूवणं कुणमाणो सेसमग्गणाणं देसामासयभावेण वेदकसायमग्गणासु तप्परूवणट्टमुवरिमं गाहासुत्तपबंधमाह - 'छब्बीस सत्तवीसा' २६, २७, २५, २३, २२ एवमेदाणि पंच संकमट्ठाणाणि अवगदवेदविसए ण संभवंति । तदो दाणि तत्थ सुणठाणाणि त्ति घेत्तव्वाणि, जत्थ जं संकमट्ठाणमसंभवइ तत्थ तस्स सुणाणववसावलंबणादो ||२३|| ९ ३१३. 'उणुवीसङ्कारसगं' १९, १८, १४, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १ एवमेदाणि चोदस संकमट्टाणाणि णपुंसयवेदे सुण्णट्टाणाणि होंति ति सुत्तत्संगहो । सेसं सुगमं ||२४|| $ ३१४. 'अट्ठारस चोहसगं' १८, १४, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३ २, १ एवमेदाणि वारस संकमट्टणाणि इत्थिवेदविसए सुण्णद्वाणाणि होंति त्ति भणिदं होइ । १६१ क्योंकि इन मार्गणाओंमें सब संक्रमस्थानोंके पाये जानेमें कोई विरोध नहीं आता अनाहारक में पांच ही संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि यहांपर बाईसके सिवा सत्ताईस से लेकर इक्कीस पर्यन्त पांच संक्रमस्थान ही उपलब्ध होते हैं। तथा 'एगाणं अभविएस' अभव्यों के एक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि इनमें एक पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान ही देखा जाता है ॥२२॥ $ ३१२. इस प्रकार इतने कथन द्वारा मार्गणास्थानोंमें संक्रमस्थानोंका विचार करके अब उन्हीं मार्गणाओं में शून्यस्थानोंका कथन करने की इच्छासे यतः वेद और कषाय मार्गणा शेष मार्गणाओंके देशामर्षकरूप से ग्रहण की गई हैं अतः उन्हीं मार्गणाओं में शून्द स्थानोंका कथन करने के लिये आगेका गाथासूत्र कहते हैं - 'छब्बीस सत्तावीसा" अपगतवेद में २६, २७, २५, २३ और २२ ये पांच संक्रमस्थान सम्भव नहीं हैं, इसलिये ये वहां शून्य स्थानरूप जानने चाहिये, क्योंकि जहां जो संक्रमस्थान असम्भव होता है वहां उसे शून्यस्थान संज्ञा दी गई है। आशय यह है कि ये पांच संक्रमस्थान वेदवाले जीवके ही पाये जाते हैं इसलिये अपगतवेद में इनका अभाव बतलाया है ||२३|| ६३१३. उणुवीसद्वारसगं १९, १८ १४, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ४, ४, ३, २ और १ इस प्रकार ये चौदह संक्रमस्थान नपुंसकवेद में शून्यस्थान हैं यह इस सूत्रका तात्पर्य है । शेष कथन सुगम है। आशय यह है कि नपुंसकवेद में २० प्रकृतिक संक्रमस्थान तकके सब और १३ तथा १२ प्रकृतिक ये दो इस प्रकार कुल नौ संक्रमस्थान ही पाये जाते हैं शेष नहीं, इसलिये शेषका यहां निषेध किया है ॥२०॥ $३१४. 'अट्टारस चोदसगं' १८, १४, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २ और १ इस प्रकार के ये बारह संक्रमस्थान स्त्रीवेद में शू यस्थान होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन सुगम १. ता०प्रतौ पजंताणं इति पाठः । २. ता०प्रतौ संकमट्ठाणाणि इति पाठो नास्ति । २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy