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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
काणि ट्ठाणाणि होंति त्ति अभणिदूण केसु ट्ठाणेसु भवियाभवियजीवा होंति ति भतस्सा हिप्पओ मग्गणट्टाणाणं संकमट्ठाणेसु गवेसणे कदे वि मग्गणट्ठाणेसु संकमणि गवेसिदा होंति त्ति एदेणाहिप्पाएण तहा णिद्देसो कदो त्ति घेत्तव्वो, इच्छावसेण तेसिमाधाराधेयभावोववत्तदो ||१४||
९ ३००. एवमेदेण गाहासुत्तेण परूविदमग्गणट्ठाणाणं संकमट्ठाणाणं गुणट्ठाणेसु वि मग्गणा कायव्वा त्ति जाणावणट्ठमुवरिमगाहासुत्तमोइणं- 'कदि कमि होंति ठाणा०' एत्थ पंचविहो भाववियप्पो ओदइयादिभेदेण तस्स विसेसो मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अजोगि केवल त्ति दाणि गुणड्डाणाणि, पंचविहभावे अस्सियूण तेसिमवद्विदत्तादो । तत्थ हि गुट्टा कदे कदि संकमट्टाणाणि होंति केत्तियाणि वा पडिग्गहट्ठाणाणि होंति त्ति देण सुत्तेण पुच्छा कदा भवदि । तत्थ ताव ओदइयभावपरिणदे मिच्छाइट्ठिगुट्टा सत्तावीसादीणि चत्तारि संकमट्टाणाणि होंति - २७, २६, २५, २३ । पडिग्गहट्ठाणाणि पुण दोण्णि चेव तत्थ संभवंति, वावीस - इगिवीसाणि मोत्तूणण्णेसिं
कितने स्थान होते हैं ऐसा न कहकर जो 'कितने स्थानोंमें भव्य और अभव्य जीव होते हैं' ऐसा कहा गया है सो यद्यपि इस कथन द्वारा मार्गणास्थानोंका संक्रमस्थानोंमें विचार करनेकी सूचना की गई है तथापि मार्गणास्थानोंमें संक्रमस्थानोंके अन्वेषण करनेके अभिप्रायसे ही उस प्रकारका निर्देश किया गया है यह अर्थ यहाँ लेना चाहिये, क्योंकि इच्छावश उनमें आधार-आधेयभाव की उत्पत्ति होती है ॥ १४ ॥
विशेषार्थ — पूर्व में जो संक्रमस्थानों, प्रतिग्रहस्थानों और तदुभयस्थानोंकी सूचना की गई है। सो उनमें से भव्य, अभव्य और अन्य मार्गणावाले जीवोंके कौन स्थान कितने होते हैं इसके ज्ञान करने की इस गाथा में सूचना की गई है । यद्यपि गाथामें यह निर्देश किया गया है कि 'संक्रम, प्रतिग्रह और तदुभयरूप एक एक स्थानमेंसे किन स्थानों में भव्य, अभव्य या अन्य मार्गणावाले जीव होते हैं, इसका विचार करना चाहिये, तथापि इसका आशय यह है कि भव्य, अभव्य या अन्य मार्गणाओं में जहाँ जितने स्थान सम्भव हों उनका विचार कर लेना चाहिये ।' ऐसा अभिप्राय बिठाने के लिए यद्यपि विभक्ति परिवर्तन करना पड़ता है । पर ऐसा करने में कोई आपत्ति नहीं आती । साथ ही इससे ठीक अर्थका ज्ञान करनेमें सुगमता जाती है, इसलिये अर्थ करते समय यह परिवर्तन किया गया है।
$ ३००. इस प्रकार इस गाथासूत्र के द्वारा कहे गये मार्गणास्थानों और संस्थानों का गुणस्थानोंमें भी विचार करना चाहिये यह जतानेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है - 'कदि कम्मि होंति ठाणा ० ' इसमें दयिक आदिके भेदसे पाँच प्रकारके भावोंका निर्देश किया है। मिध्यात्व से लेकर अयोगकेवली तक जो चौदह गुणस्थान हैं वे इन्होंके भेद हैं, क्योंकि पाँच प्रकारके भावों का
श्रय लेकर ही वे अवस्थित हैं । उनमें से किस गुणस्थान में कितने संक्रमस्थान और कितने प्रतिप्रहस्थान होते हैं यह इस गाथासूत्र द्वारा पृच्छा की गई है । उनमें से औदयिक भावरूप मिध्यात्व गुणस्थानमें तो सत्ताईस प्रकृतिक आदि चार संक्रमस्थान होते हैं - २७, २६, २५, और २३ | किन्तु वहीँ प्रतिग्रहस्थान दो ही होते हैं, क्योंकि वहाँ बाईस और इक्कीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंके सिवा
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