SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३५ गा० ३६-३७ ] संकमट्ठाणणं पडिग्गहठ्ठाणिहेसो णवणोकसायोक्समे कदे तिविहकोह-माण-माया-दुविहलोहपयडिसमुदायणिप्पण्णमेक्कारसपयडिसंकमट्ठाणं चदुसंजलणपडिग्गहविसयं होऊण समुप्पजइ । एदस्स चेव कोहसंजलणपढमट्ठिदीए तिहमावलियाणं समयूणाणमवसेसे दुविहं कोहं तत्थासंकामेऊण माणसंजलणसरूवेण संकामेमाणस्स तकाले तिण्हं संजलणपयडीणं पडिग्गहभावेण एक्कारससंकमट्ठाणमुप्पजइ । 'दसगं चउक्क-पणगे'-दसपयडिसंकमो चउक्क-पणयपडिग्गहट्ठाणविसए पडिणियदो त्ति दट्ठव्वो । तत्थ ताव चउवीससंतकम्मिएण तिविहकोहोवसमे कदे तिविहमाण-माया-दुविहलोह-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तसण्णिददसपयडिसंकमो माणमाया-लोहसंजलण-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तपंचपयडिपडिग्गहट्ठाणाहिट्ठाणो समुप्पजइ । एदस्स चेव माणसंजलणपढमहिदीए समयूणावलियतियमेत्तावसेसे' दुविहं माणमत्थासंकामेऊण मायासंजलणे संछुहमाणयस्स माया-लोहसंजलण-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तचउपयडिपडिग्गहावेक्खो दसपयडिसंकमो होइ । अहवा खवगेण इत्थिवेदे खविदे दसपयडिसंकमट्ठाणं चउसंजलणपयडिपडिग्गहपडिबद्धमुप्पजइ । 'णवगं च तिगम्हि बोद्धव्वा' एदेण चउत्थावयवेण णवसंकमट्ठाणस्स तिण्डं पयडीणं पडिग्गहभावो परूविदो। तं जहा–इगिवीससंतकम्मिएण दुविहकोहोवसमे कदे कोहसंजलणसत्तावाला जो उपशामक जीव नौ नोकषायोंका उपशम कर देता है उसके प्रतिग्रहरूप चार संज्वलनोंका विषयभूत तीन प्रकारका क्रोध, तीन प्रकारका मान, तीन प्रकारको माया और दों प्रकारका लोभ इन प्रकृतियोंका समुदायरूप ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । यही जीव जब क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थितिमें एक समय कम तीन आवलि शेष रहने पर इसमें दो प्रकारके क्रोधका संक्रम न करके केवल मान संज्वजनका संक्रम करता है तब तीन संज्वलन प्रकृतियोंके प्रतिग्रहरूपसे ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। 'दसर्ग -पणगे' यह गाथाका तीसरा चरण है। इसमें चार प्रकृतिक और पाँचप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके विषयरूपसे दस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्रतिनियत है यह बतलाया गया है। खुलासा इस प्रकार है-जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव तीन प्रकारके क्रोधका उपशम कर देता है उसके तीन प्रकारका मान, तीन प्रकारकी माया, दो प्रकार का लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दस प्रकृतियोंका संक्रम मान, माया और लोभ संज्वलन तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन पांच प्रतिग्रहरूप प्रकृतियोंके आधारसे उत्पन्न होता है । तथा जब यही जीव मान संज्वलनकी प्रथम स्थितिमें एक समयकम तीन अवलि कालके शेष रह जानेपर इसमें दो प्रकारके मानके संक्रमका प्रभाव करके माया संज्वलनमें संक्रम करता है तब मायासंज्वलन, लोभसंज्वलन, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन चार प्रतिप्रहरूप प्रकृतियोंकी अपेक्षा रखनेवाला दस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। अथवा जब क्षपक जीव स्त्रीवेदका क्षय कर देता है तब प्रतिग्रहरूप चार संज्वलन प्रकृतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला दस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । गाथाके 'णवगं च तिगम्हि बोद्धव्वा' इस चौथे चरण द्वारा नौ प्रकृतिक संक्रमस्थानका तीन प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है यह बतलाया है। यथा-इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस जीवने दो प्रकारके क्रोधका उपशम कर दिया है उसके क्रोध संज्वलन, तीन प्रकारका १. श्रा०प्रतौ -समयूणावलियएत्तियमेत्तावसेसे इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy