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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पंधगो ६ पंयडिपडिग्गहसंभवो अजिंदसम्माइडिट्ठाणे अणियट्टि करणपविट्ठखवगोवसामगेसु च जहाकम सत्तारस-पंचपडिग्गहट्ठाणसंभवो, इगिवीससंतकम्मिएसु तेसु तदुप्पत्ति विसंसाभावादो। संतकम्मियमस्सिऊणाणियट्टिट्ठाणम्मि सत्तपयडि पडिग्गहट्ठाणसंभवो,आणुपुव्वीसंकम काऊण णqसयवेदे उवसामिदे तत्थ सत्तपडिग्गहट्ठाणपडिबद्धक्कावीससंकमट्ठाणुबलभादो। सासणसम्माइद्विम्मि एकवीसपडिग्गहट्ठाणसंभवो वत्तव्यो, अणंताणुबंधिविसंजोयणापरिणदउवसमसम्माइट्ठिम्मि सासणगुणं पडिवण्णे तप्पढमावलियाए तदुर्वलद्धीदो। संपहि एदेसिं पंडिग्गहट्ठाणाणमाघारभूदगुणट्ठाणविसेसावहारणहमिदमाह'छप्पि सम्मत्ते' इदि । एदाणि छप्पि पडिग्गहट्ठाणाणि सम्मत्तोवलक्खिए चेव गुणट्ठाणे होति णाण्णत्थ संभवंति ति उत्तं होई। कधं पुण सासणसम्माइंटिस्स सम्माइट्टिववएसो ? ण दंसणतियस्स उदयाभावं पेक्खियूण तस्स सम्माइद्वित्तोवयारादो ॥७॥ प्रतिग्रहस्थान सम्भव है । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणमें प्रकृतसंक्रमस्थानका नौ प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान सम्भव है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें तथा अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए क्षपक और उपशामकके क्रमसे सत्रह प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान सम्भव है। अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टिके सत्रह प्रकृतिक तथा अनिवृत्तिकणरगुणस्थानवी क्षपक और उपशामकके पाँच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान है, क्योंकि इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उक्त जीवोंके उक्त प्रतिग्रहस्थानोंकी उत्पत्ति होनेमें कोई बाधा नहीं आती है। तथा चौबीस प्रकृतिक सत्कर्मकी अपेक्षा अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें सात प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान सम्भव है, क्योंकि आनुपूर्वी संक्रमको करके नपुंसकवेदका उपशम कर लेनेपर वहाँ सातप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उपलब्ध होता है। इसीप्रकार इक्कीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानका सम्भव सासादनसम्यग्दृष्टिके कहना चाहिये, क्योंकि जिस उपशमसम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है उसके सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेपर उसकी प्रथम आवलिके भीतर उक्त प्रतिग्रहस्थान व संक्रमस्थान पाया जाता है। अब इन प्रतिग्रहस्थानों के आधारभूत गुणस्थानविशेषोंका अवधारण करनेके लिये 'छप्पि सम्मत्ते' पद कहा है। ये छह प्रतिग्रहस्थान सम्यक्त्वसहित गुणस्थानोंमें सम्भव हैं अन्यत्र सम्भव नहीं है यह इस कथनका तात्पर्य है । शंका-यहाँ सासादनसम्यग्दृष्टिको सम्यग्दृष्टिं यह संज्ञा कैसे दी है ? समाधान—नहीं, क्योंकि सासादन गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका उदय नहीं होता यह देखकर उपचारसे उसे सम्यग्दृष्टि संज्ञा दी है। विशेषार्थ-प्रकृतिसंक्रमस्थानकी इस सातवीं गाथामें इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके कितने प्रतिग्रहस्थान और कौन कौन स्वामी हैं यह बतलाया है। स्वामीका निर्देश करते हुए गाथामें केवल 'सम्मत्ते' पद दिया है। जिसका अर्थ होता है कि इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके ये छहों प्रतिग्रहस्थान सम्यग्दृष्टिके होते हैं। तथापि इनमेंसे इक्कीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके रहते हुए इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान सासादन सम्यग्दृष्टिके भी होता है, इसलिये यह प्रश्न हुआ कि सासादन सम्यग्दृष्टिको सम्यग्दृष्टि कैसे कहा जाय ? टीकामें इसका यह समाधान किया गया है कि सासादनमें तीन दर्शनमोहनीयका उदय नहीं होता है और इस अपेक्षासे उसे उपचारसे सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है। इस प्रकार यद्यपि इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके रहते हुए इक्कीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान सम्यग्दृष्टिके बन जाता है तथापि इन छह प्रतिग्रहस्थानोंमें एक सत्रह प्रकृतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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