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________________ गा० ३२-३३ ] संकमणाणं पडिग्गहाणणिद्देसो चोदस डिग्गहो होऊण बावीससंकमद्वाणमुप्पजइ । एवं सेसाणं पि वत्तव्वं, पमत्तापमत्तसंजदाणियट्टिगुणड्डाणा विरदसम्माइट्ठीसु जहाकम्मं तदुप्पत्तदो । कथमणियट्टिट्ठाणे. वावीससंकमसंभवो त्ति णासंकणि, आरणुपुब्वीसंक मे चउवीस संतकम्मियस्स तदविरोहादो | एत्थेव गविसयणियमावहारणट्टमिदं वयणं 'णियमा मणुस गईए ।' कुदो एस नियमो ? सेसईसु दंसणमोहक्खवणाए आणुपुव्वीसंकमस्स वा असंभवादो । एत्थेव गुणट्टाणगयसामित्तविसे सावहारणट्ठमिदमाह - 'विरदे मिस्से अविरदे य । संजदासंजद - संजद - असंजदसम्माइट्टिगुणड्डाणेसु चेवेदाणि पडिग्गहद्वाणाणि होति त्ति भणिदं होइ || ६ || ९ २८९. 'तेरस्य णवंय सत्तय०' - एत्थ एमाधिगाए वीसाए संकमो तेरसादिसु छसु पडिग्गहट्ठाणेसु होइ ति सुत्तस्थसंबंधो । कथमेदेसि संभवो ? बुच्चदे - खइयसम्माइट्ठिसंजदासंजदम्मि पयदसंकमट्ठाणस्स तेरसपडिग्गहसंभवो पमत्तापमत्ता पुव्वकरणेसु णव १२९ सम्यग्मिथ्यात्वके बिना चौदह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके साथ बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार शेष प्रतिग्रहस्थानों के विषयमें भी कथन करना चाहिये, क्योंकि क्रमसे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतके दस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके रहते हुए, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में सात प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके रहते हुए और अविरतसम्यग्दृष्टिके अठारह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके रहते हुए बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानकी उत्पत्ति होती है । शंका — अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें बाईस प्रकृतिक संक्रम कैसे सम्भव है ? समाधान- यह आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ हो पर चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके होने में कोई विरोध नहीं आता है। यहीं पर गतिविषयक नियमका निश्चय करनेके लिये 'णियमा मणुसगईए' पद दिया है। शंका- यह नियम किस कारण से किया गया है ? समाधान — क्योंकि मनुष्यगति के सिवा शेष गतियोंमें दर्शनमोहकी क्षपणा और आनुपूर्वीसंक्रम सम्भव नहीं हैं। पर गुणस्थानसम्बन्धी स्वामित्वविशेषका निश्चय करनेके लिये 'विरदे मिस्से अविरदे य' पद कहा है । इसका यह आशय है कि ये प्रतिग्रहस्थान संयतासंयत, संयत और असंयतसम्यग्दृष्टि इन गुणस्थानोंमें ही होते हैं । विशेषार्थ — इस छठी गाथामें बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके कौन-कौन प्रतिग्रहस्थान होते हैं और वे किस गतिमें तथा किस किस गुणस्थानमें होते हैं यह बतलाया है । गुणस्थानोंका उल्लेख गाथामें 'विरदे मिस्से अविरदे य' इस रूपमें किया है । यहाँ मिश्र से विरताविरत लिया है, क्योंकि चौदह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान विरताविरत के ही पाया जाता है । ६२८९. अब 'तेरसय एवयं सत्तय०' इस सातवीं गाथाका अर्थ कहते हैं -- इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रम तेरह आदि छह प्रतिग्रह स्थानों में होता है यह इस गाथा सूत्रका तात्पर्य हैं । इनका यहाँ कैसे सम्भव है ? बतलाते हैं - क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत के प्रकृत संक्रमस्थानका तेरहप्रकृतिक १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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