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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ वेदे उवसंते छण्णोकसायाणमुवसामयभावेणावट्ठिदस्स । तत्थ दो दंसणमोहणीयपयडीहि सह एकारसकसाय-सत्तणोकसायाणं संकमपाओग्गाणमुवलंभादो। * एगुणवीसाए एकवीसदिसंतकम्मंसियस्स एसयवेदे उवसंते इत्थिवेदे अणुवसंते। ___.२४०. इगिवीससंतकम्मियस्सुवसामगस्स लोभाणुपुव्वीसंकमवसेण समासादिदवीसपयडिसंकमट्ठाणस्स कमेण णवंसयवेदे उवसंते पयदसंकमट्ठाणमुप्पअइ ति सुत्तत्थसंबंधो । ओदरमाणगं पि समस्सियूणेदस्स हाणस्स संभवो समयाविरोहेणाणुगंतव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्तादो। * अट्ठारसण्हमेकावीसदिकम्मंसियस्स इथिवेदे उपसंते जाव गणो. कसाया अणुवसंता। $ २४१. तस्सेब इगिवीससंतकम्मंसियस्स अंतरकरणे कदे णवंसय-इत्थिवेदेसु सत्तावाले उपशामक जीवके प्रकृत संक्रमस्थान होता है, क्योंकि यहाँ पर संक्रमके योग्य दो दर्शन मोहनीयके साथ ग्यारह कषाय और सात नोकषाय प्रकृतियां पाई जाती हैं। विशेषार्थ— यहां पर बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान तीन प्रकारसे प्राप्त होता है दो क्षायिक सम्यग्दृष्टिके और एक द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टिके । ये तीनों ही संक्रमस्थान उपशमश्रेणिमें होते हैं । इनका विशेष खुलासा टीकामें ही किया है अतः यहाँ नहीं करते हैं। * इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके नपुंसकवेदका उपशम होकर जब तक स्त्रीवेदका उपशम नहीं होता तब तक उन्नीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। २४० जिस इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवने लोभसंज्वलनमें होनेवाले आनुपूर्वी संक्रमके कारण बीस प्रकृतिक संक्रमस्थानको प्राप्त कर लिया है उसके क्रमसे नपुंसकवेदके उपशान्त हो जाने पर प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। इसी प्रकार उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले जीवकी अपेक्षासे भी आगमानुसार इस स्थानको जान लेना चाहिये, क्योंकि यह सूत्र देशामर्षक है। विशेषार्थ—यहाँ उन्नीस प्रकृतिक संक्रस्थान दो प्रकारसे बतलाया है। एक तो जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ रहा है उसके नपुंसकवेदका उपशम हो जाने पर प्राप्त होता है, क्योंकि तब लोभसंज्वलन और नपुंसकवेदका संक्रम नहीं होता है शेषका होता है। दूसरे यह जीव जब उपशमश्रेणिसे उतर कर छह नोकषायोंका तो अपकर्षण कर लेता है किन्तु स्त्रीवेद और नपुंसक वेद उपशान्त ही रहते हैं तब प्राप्त है। इसके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका संक्रम नहीं होता शेषका होता है । यद्यपि दूसरा प्रकार चूर्णिसूत्रमें नहीं बतलाया है तथापि यह सूत्र देशामर्षक होनेसे इस स्थानका ग्रहण हो जाता है। __ * इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके स्त्रीवेदका उपशम होकर जब तक छह नोकषायोंका उपशम नहीं होता है तब तक अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। . $ २४१. उसी इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके अन्तरकरण करनेके बाद नपुसकवेद १. ता०प्रतौ तदो दंसणमोहपयडीहि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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