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________________ गा० २७ ] ६६ * बीसाए एकवीसदिसंतकम्मियस्स आणुपुच्चीसंक मे कदे जाव एवंसयवेदो अणुवसंतो । ९ २३८. णवुंसयवेदोवसमो किमट्ठमेत्थ णेच्छिजदे ? ण, तम्मिं उवसंते पयदविरोहिसंकमट्ठाणंतरुष्पत्तिदंसणादो' । तदो एक्कारसकसाय-णवणोकसायसमुदायप्पय मेदं संकमट्ठाणमिगिवीससंतकम्मियस्सुवसामगस्स अंतरकरणपढमसमयादो जाव णवुंसयवेदावसमो ताव होदिति सुत्तत्थसंगहो । ओदरमाणगस्स पुण णवुंसयवेदे उवसंते चेय पयदसंक माणसंभवो ति एसो वि अत्थो एत्थेव सुत्ते णिलीणो त्ति वक्खाणेयच्वो । * चउवीसदिसंतकम्मियस्स वा आणुपुच्चीसंकमे कदे इत्थवेदे उवसंते सु कम्मे अणुवसंतेसु । $ २३९. चउवीसदिसंतकम्मंसियस्स वा उवसामगस्स पयदसंक मट्ठाणमुप्पज्जइ त्ति संबंधो । कथंभू दस्स तस्स ! आणुपुव्वीसंकमे कदे णवंसयवेदोवसामणाणंतरमित्थि - * इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ हो जाने पर जब तक नपुंसकवेदका उपशम नहीं होता तब तक बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । ९ २३८. शंका -- यहां पर नपुंसकवेदका उपशम क्यों नहीं स्वीकार किया गया है ? समाधान — नहीं, क्योंकि उसका उपशम हो जाने पर प्रकृत संक्रमस्थान के विरोधी दूसरे संक्रमस्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये यहां नपुंसकवेदका उपशम नहीं स्वीकार किया गया है। समुत्तिणा इसलिए इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीव के अन्तरकरण करनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक नपुंसकवेदका उपशम नहीं होता है तब तक ग्यारह कषाय और नौ नोकषायों के समुदायरूप यह बील प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है यह इस सूत्रका समुच्चयार्थ है । किन्तु उप रामश्रेणिसे उतरनेवाले जीवके तो नपुंसकवेदके उपशान्त रहते हुए ही प्रकृत संक्रमस्थान सम्भव है इस प्रकार यह अर्थ भी इसी सूत्र में गर्भित है यह व्याख्यान यहां करना चाहिये । * अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले वेदका उपशम होकर जब तक छह नोकषायोंका प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है । जीवके आनुपूर्वी संक्रमके बाद स्त्रीउपशम नहीं हुआ है तब तक बीस ६ २३६. श्रथवा चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाले उपशामक जीवके प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिये । 'शंका - यह चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव कैसा होना चाहिये जब इसके प्रकृत संक्रमस्थान होता है ? समाधान — जिसने आनुपूर्वी संक्रम करके नपुंसक वेदका उपशम करनेके बाद स्त्रीवेदका उपशम तो कर लिया है किन्तु छह नोकपायोंका उपशम कर रहा है उस चौबीस प्रकृतियोंकी १. ता० प्रतौ तत्थ (त०) म्मि इति पाठः । २. ता० प्रतौ द्वाणंतवलंभदंसणादो । इति पाठः । ३. ता० प्रतौ - कम्मियस्त इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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