SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ करणवावारविरोहादो च । तम्हा छब्बीससंतकम्मियस्स पणुवीससंकमट्ठाणे सम्मत्तुप्पत्तिपढमसमए मिच्छत्तस्स संकमपाओग्गत्तसिद्धीएं छब्बीससंकमट्ठाणसंभवो ति सिद्धं । * पणुवीसाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेहि विणा सेसाओ। $ २२९. पणुवीसाए संकमट्ठाणस्स काओ पयडीओ त्ति आसंकिय सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेहि विणा सेसाओ होति त्ति उत्तं । सेसं सुगमं । ॐ चउवीसाए किं कारणं णत्थि । २३०. एत्थ संकमो त्ति पयरणवसेणाहिसंबंधो कायव्यो । सेसं सुगमं । छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिके पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके रहते हुए जब वह सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके प्रथम समयमें मिथ्यात्वको संक्रमके योग्य कर लेता है तब उसके छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है यह सिद्ध हुआ। विशेषार्थ-यहाँ छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान दो प्रकारसे बतलाया है। प्रथम प्रकारमें सोलह कषाय, नौ नाकवाय तथा सम्यग्मिथ्यात्व ये छब्बीस प्रकृतियां ली हैं। यह संक्रमस्थान सम्यक्त्वकी उद्वेलनाके बद मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें प्राप्त होता है । यद्यपि यहां सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्ता है तथापि यहां मिथ्यात्वका संक्रम सम्भव नहीं, इसलिये संक्रमस्थान छब्बीस प्रकृतिक ही होता है । दूसरे प्रकारमें सोलह कषाय, नौ नोकषाय और मिथ्यात्व ये छब्बीस प्रकृतियां ली हैं। यह संक्रमस्थान जो छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव प्रथमोपराम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके प्रथम समयमें होता है। यद्यपि यहां सत्ता अट्ठाईस प्रकृतियोंकी हो जाती है, तथापि यहां प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता, इसलिये यहां भी छञ्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विना शेष सब प्रकृतियाँ हैं। . ६२२६. पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानकी कौनसी प्रकृतियां हैं ऐसी आशंका करके सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यावके चिना शेष सब प्रकतियां हैं यह कहा है। शेष कथन सुगम हैं। विशेषार्थ-पहले यह बतला आये हैं कि सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थानमें चारित्रमोहनीयकी पच्चीस तथा दर्शनमोहनीयको दो ये सत्ताईस प्रकृतियाँ होती हैं। उनमेंसे दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियाँ निकाल लेने पर पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। तथापि वे दो प्रकृतियाँ कौनसी हैं जो सत्ताईस प्रकृतियोंमेंसे निकाली गई हैं। यह एक प्रश्न है। जिसका उत्तर देते हुए चूणिसूत्र में यह बतलाया है कि वे दो प्रकृतियाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व हैं। जिन्हें निकाल देने पर पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। आशय यह है कि मिथ्यादृष्टि जीवके जब सम्यग्मिथ्यात्वकी भी उद्वेलना हो जाती है तब यह पच्चोस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है । या अनादि मिथ्यादृष्टिके भी मिथ्यात्वके बिना यह संक्रमस्थान होता है । * चौबीस प्रकृतिक स्थानका किस कारणसे संक्रम नहीं होता। २३. इस सूत्रमें प्रकरणवश 'संक्रम' इस पदका सम्बग्ध कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है। १, ता. प्रतौ पाश्रोग्गत्ता सिद्धीए इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy