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________________ गा० २७] ठाणसमुक्त्तिणा $ २२६. सोलसकसाय-णवणोकसायभेएण पणुवीसं चरित्तमोहणीयपयडीओ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसण्णिदाओ मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तसण्णिदाओ वा दोण्णि दंसणमोहणीयपयडीओ च घेत्तूण सत्तावीसाए संकमट्ठाणमुप्पजदि त्ति भणिदं होइ । * छुव्वीसाए सम्मत्ते उव्वेल्लिदे ।। ६ २२७. सत्तावीससंकामयमिच्छाइट्टिणा सम्मत्ते उव्वेल्लिदे संते सेसछब्बीसपयडिसमुदायप्पयमेदं संकमट्ठाणमु प्पज्जइ त्ति सुत्तत्थो । पयारंतरेणावि तप्पटुप्पायणट्ठमुत्तरो सुत्तावयारो 8 अहवा पढमसमयसम्मत्ते उप्पाइदे । २२८. पढमसमयविसेसिदं सम्मत्तं पढमसमयसम्मत्तं । तम्मि उप्पाइदे पयदसंकमट्ठाणमुप्पजइ , तत्थ सम्मामिच्छत्तस्स संकमाभावादो। तं कधं ? छब्बीससंतकम्मियमिच्छाइ हिस्स पढमसम्मत्तप्पायणसमए मिच्छत्तकम्म सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणमइ. ण तम्मि समए सम्मामिच्छत्तस्स संकमसंभवो, पुव्वमणुप्पण्णस्स ताधे चे उप्पज्जमाणस्स तप्परिणामविरोहादो संतुप्पायणे वावदस्स जीवस्स संकामण ६२२६. सोलह कपाय और नौ नोकपायोंके भेदसे चारित्रमोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियाँ तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व या मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो दर्शनमोहनीयकी प्रकृतियाँ मिलाकर सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । * इन सत्ताईसमेंसे सम्यक्त्वकी उद्वेलना होने पर छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। २२७. सत्ताईस प्रकृतियोंके संक्रामक मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर लेने पर शेष छव्वीस प्रकृतियोंका समुदायरूप संक्रमस्थान उत्पन्न होता है यह उक्त सूत्रका अर्थ है । अब प्रकारान्तरसे उक्त स्थानके उत्पन्न करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं * अथवा सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेके प्रथम समयमें छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। ___२२८. सूत्र में 'प्रथम समय' पद सम्यक्त्वका विशेषण है और 'सम्यक्त्व' विशेष्य है । इसलिये इस सूत्रका यह आशय है कि प्रथम समयसे युक्त सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होने पर अर्थात् सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता। शंका-सो कैसे ? समाधान-छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेके प्रथम समयमें मिथ्यात्व कर्म सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे परिणमन करता है। इसलिये उस समय सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्भव नहीं है, क्योंकि जो प्रकृति पहले न उत्पन्न होकर उसी समय उत्पन्न हो रही है उसका उसी समय संक्रमरूप परिणमन मानने में विरोध प्राता है। दूसरे जो जीव सत्ताके उत्पन्न करनेमें लगा हुआ है उसके उसी समय संक्रमकरणकी प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है, इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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