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________________ जयधवनासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ वि उवरिमसत्तगाहाओ मग्गणाविसेसे अस्सिऊण सुण्णट्ठाणाणि परूवेति । किं सुण्णट्ठाणं णाम ? जत्थ जं संतकम्मट्ठाणं ण संभवइ तत्थ तस्स सुण्णट्ठाणववएसो। तदणंतरोवरिमाए पुण गाहाए बंध-संकम-संतकम्मट्ठाणाणमण्णोण्णसण्णियासविहाणं सूचिदं । अवसेसदोगाहाओ गुणट्ठाणसंबंघेण पुवपरूविदाणमणिओगद्दाराणं गुणट्ठाणविवक्खाए विणा मग्गणट्ठाणसंबंधेण विसेसेयूर्ण परूवणट्ठमागदाओ ति णिच्छो कायव्यो । एवमेसो गाहासुत्ताणं समुदायत्थो परूविदो । अवयवत्थविवरणं पुण पुरदो वत्तइस्सामो । २११. संपहि सुत्तसमुकित्तणाणंतरं तदत्थविवरणं कुणमाणा चुण्णिसुत्तयारो सुत्तसूचिदाणमणियोगद्दाराणं परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ सुत्तसमुक्त्तिणाए समत्ताए इमे अणियोगदारा। 5 २१२. गाहासुत्तसमुक्त्तिणाणंतरमेदाणि अणियोगद्दाराणि पयडिट्ठाणसंकमविसयाणि णादव्वाणि त्ति भणिदं होइ । 8 तं जहा। $ २१३. सुगमं । * ठाणसमुचित्तणा सव्वसंकमो गोसव्वसंकमो उक्कस्ससंकमो मार्गणाविशेषोंकी अपेक्षा शून्यस्थानोंका कथन करती हैं। शंका-शून्यस्थान किसे कहते हैं ? समाधान—जहाँ जो सत्कर्मस्थान सम्भव नहीं है, वहाँ वह शून्यस्थान कहलाता है । फिर इससे आगेकी गाथामें बन्धस्थान, संक्रमस्थान और सत्कर्मस्थान इनके परस्परमें सन्निकर्षकी विधि सूचित की गई है। अब रहीं शेष दो गाथाएं सो वे जिन अनुयोगद्वारोंका गुणस्थानोंके सम्बन्धसे पहले कथन कर आये हैं उनका गुणस्थानोंकी विवक्षा किये बिना मार्गणाओंके सम्बन्धसे विशेष कथन करनेके लिये आई हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये। इस प्रकार यह गाथासूत्रोंका समुच्चयार्थ है जिसका कथन कियो । किन्तु उनके प्रत्येक पदका अर्थ आगे कहेंगे। २११. अब गाथा सूत्रोंकी समुत्कीर्तना करनेके बाद उनके अर्थका विवरण करते हुए चूर्णिसूत्रकार गाथासूत्रोंसे सूचित होनेवाले अनुयोगद्वारोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तना करनेके बाद ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। ६ २१२. गाथासूत्रोंकी समुत्कीर्तना करनेके बाद प्रकृतिस्थानसंक्रमसे सम्बन्ध रखनेवाले ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । * यथा६२१३. यह सूत्र सुगम है। * स्थानसमुत्कीर्तना, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्ट संक्रम, अनुत्कृष्ट संक्रम, १. आ प्रतौ विसेसे पुण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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