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________________ गा० २७-५८ ] सुत्तसमुत्तिणा ९ २१०. एवमेदाओ बत्तीस मुत्तगाहाओ' पयडिट्ठाणसंकमे पडिबद्धाओ त्ति उत्तं होइ । एत्थ पढमगाहाए ठाणसमुक्कित्तणा संगतोभावियपयडिट्ठाणसंकमासंकमपडिबद्धा । विदियगाहा व पट्ठिाणपडिग्गहो तदपडिग्गहो च पडिबद्धो । पुणो तदनंतरोवारिमदसगाहाओ एदस्सेदस्स पयडिट्ठाणसंकमस्स एत्तियाणि एत्तियाणि पडिग्गहडाणाणि होंति त्ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स सामित्तसहगयस्स परूवण मोदिण्णाओ । पुणो अणुपुब्वमणणुपुब्वमिच्चेदीए तेरसमीए गाहाए पयडिसंकमडाणाणं दंसण-चरित्तमोहक्खवगोवसामणादिविसय विसेसमस्सिदूण समुप्पत्तिकमपरूवणट्टमाणुपुव्विसंकमा दिअट्ठपदाणि सूचिदाणि । तदणंतरोवरिमगाहा वि संकमपडिग्गह-तदुभयट्ठाणाणं मग्गणदृदाए गदियादिचोदसमग्गणाणाणि देसामासियभावेण सूचेदि । तत्तो अनंतशेवरिमगाहासुत्त पुव्वद्ध पयदसंकमड्डाणामाधारभृदाणि गुणट्टाणाणि सूचिदाणि तेहि विणा सामित्तपरूवणोवायाभावाद । पच्छिमद्धे वि सामित्ताणंतरपरूवणाजोग्गं कालाणिओगद्दारं सेसाणिओगदाराणं देसामासियभावेण सूचिदमिदि घेत्तव्वं । पुणो एत्तो उवरिमसत्तगाहासु तेहि' गदियादिचोदसमग्गणाणेसु जत्थतत्थाणुपुव्वीए संकमट्ठाणाणं मग्गणा कीरदे । पुणो प्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवोंकी अपेक्षा काल, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर, भाव और सन्निकर्ष इन अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे नयके जानकार पुरुष प्रकृतिसंक्रमविषयक उक्त गाथाओंके उदार अर्थको मूल श्रुतके अनुसार जानें ॥५७-५८ || $ २१०. इस प्रकार प्रकृतिस्थानसंक्रमसे सम्बन्ध रखनेवालीं ये बत्तीस सूत्रगाथाएं हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इनमें से पहली गाथामें स्थानोंका निर्देश किया है । उसमें बतलाया है कि कितने प्रकृतिस्थानसंक्रम हैं और कितने प्रकृतिस्थान असंक्रम हैं । दूसरी गाथा में प्रकृतिस्थान - प्रतिग्रह कितने हैं और प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह कितने हैं यह बतलाया है । फिर इन दो गाथाओंके बादकी दस गाथाएँ इस इस प्रकृतिस्थानसंक्रमके ये ये प्रतिग्रहस्थान होते हैं इस तरह के अर्थविशेष का कथन करनेके लिये आई हैं। साथ ही इनमें अपने अपने स्थानके स्वामीका भी निर्देश किया है। फिर अणुपुव्वमणुपुवं' इत्यादि तेरहवीं गाथा द्वारा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा और उपशमना आदि विषयक विशेषताका आश्रय लेकर प्रकृतिसंक्रमस्थानोंके उत्पत्तिका क्रम दिखलाने के लिये आनुपूर्वी संक्रम आदि आठ स्थान सूचित किये गये हैं । फिर इससे अगली गाथा भी संक्रमस्थान, प्रतिग्रहस्थान और तदुभयस्थान इनकी गवेषणा करनेके लिये देशामर्षकरूपसे गति आदि चौदह मार्गणास्थानों को सूचित करती है । फिर इससे आगेकी गाथा के पूर्वार्धमें प्रकृतसंक्रमस्थानोंके आधारभूत गुणस्थानोंका संकेत किया है, क्योंकि इनका निर्देश किये बिना स्वामित्वका कथन नहीं किया जा सकता है । फिर इसी गाथाके उत्तरार्ध में स्वामित्वके बाद कथन करने योग्य कालानुयोगद्वारको ग्रहण किया है जिससे कि देशामर्षकरूपसे शेष अनुयोगद्वारोंका सूचन होता है । फिर इससे आगेकी सात गाथाओं द्वारा गति आदि चौदह मार्गणास्थानों में यत्रतत्रानुपूर्वीके क्रमसे संक्रमस्थानोंका विचार किया गया है। फिर भी इससे आगेकी सात गाथाएं १. ता० प्रती बत्तीसगाहाश्रो इति पाठः । २ ता० प्रतौ सुत्तगासु तेहि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only ८७ www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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