________________
प्रस्तावना
जहां तक चूर्णिसूत्रकार आचार्य यतिवृषभकी श्राम्नायका सम्बन्ध है उसमें न तो कोई अन्थकारोंकी मतभेद है और न उसके लिये कोई स्थान ही है, क्योंकि उनकी त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें दी गई आम्नाय आचार्य परम्परासे ही यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर आम्नायके आचार्य थे। किन्तु
. कषायप्राइतके रचयिता आचार्य गुणधरके सम्बन्धमें कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे उनकी मानायके सम्बन्धमें कुछ भ्रम हो सकता है या भ्रम फैलाया जा सकता है। अतः उन बातोंके सम्बन्धमें थोड़ा ऊहापोह करना आवश्यक है। वे बातें निम्न प्रकार हैं
प्रथम, आचार्य गुणधरको वाचक कहा गया है । दूसरे, उनके द्वारा रची गई गाथाओंकी प्राप्ति आर्यमंच और नागहस्तिको होनेका और उनसे अध्ययन करके यतिवृषभके उनपर चूर्णिसूत्रोंकी रचना करनेका उल्लेख पाया जाता है। तीसरे, धवला और जयधवलामें षट्खण्डागमके उपदेशसे कषायप्राभृतके उपदेशको भिन्न बतलाया है। इनमें से पहले वाचकपदको ही लेना चाहिये।
तत्त्वार्थसूत्रका जो पाठ श्वेताम्बर आम्नायमें प्रचलित है उसपर रचे गये तथोक्त स्वोपज्ञ भाष्यके अन्तमें एक प्रशस्ति है। उस प्रशस्तिमें सूत्रकारने अपने गुरुओंको तथा अपनेको वाचक लिखा है। तत्त्वार्थसूत्रके अपने गुजराती अनुवादकी प्रस्तावनामें पं० सुखलालजीने सूत्रकार उमास्वातिकी परम्परा बतलाते हुए लिखा था
'उमास्वामीके वाचक वंशका उल्लेख और उसी वंशमें होनेवाले अन्य आचार्योंका वर्णन श्वेताम्बरीय पट्टालियों पन्नवण्णा और नन्दीकी स्थविरावलीमें पाया जाता है।
_ 'ये दलीले वा० उमास्वातीको श्वेताम्बर परम्पराका मनवाती हैं और अब तकके समस्त श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी परम्पराका पहलेसे मानते आये हैं। ऐसा होते हुए भी उनकी परम्पराके सम्बन्धमें कितने ही वाचन तथा विचारके पश्चात् जो कल्पना इस समय उत्पन्न हुई है उसको भी अभ्यासियोंके विचारसे दे देना यहां उचित समझता हूं।'
'जब किसी महान नेताके हाथसे स्थापित हुए सम्प्रदायमें मतभेदके बीज पड़ते हैं, पक्षोंके मूल बंधते हैं और धीरे धीरे वे विरोधका रूप लेते हैं तथा एक दूसरेके प्रतिस्पर्धी प्रतिपक्ष रूपसे स्थिर होते हैं। तब उस मूल सम्प्रदायमें एक ऐसा वर्ग खड़ा होता है जो परस्पर विरोध करने वाले और लड़ने वाले एक भी पक्षको दुराग्रही तरफदारी नहीं करता हुआ अपनेसे जहां तक बने वहां तक मूल प्रवर्तक पुरुषके सम्प्रदायको तटस्थरूपसे ठीक रखनेका और उस रूपसे ही समझानेका प्रयत्न करता है। मनुष्य स्वभावके नियमका अनुसरण करने वाली यह कल्पना यदि सत्य हो तो प्रस्तुत विषयमें यह कहना उचित जान पडता है कि जिस समय श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों पक्षोंने परस्पर विरोधीपनेका रूप धारण किया और प्रमक विषयसम्बन्धमें मतभेदके झगड़ेकी तरफ वे ढले उस समय भगवान महावीरके शासनको मानने शेष दो मत भी यहां तक कि ४६१ वर्ष वाला वह मत भी जो त्रिलोकप्रज्ञप्तिके कर्ताको मान्य है उसमें नहीं हैं । तथा तीनो मतों के लिये जो गाथाएं उद्धृतकी गई हैं वे भी त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी नहीं हैं, किन्तु बिल्कुल जुदी ही हैं। इस परसे मनमें अनेक विकल्प उत्पन्न होते हैं । त्रिलोक प्रज्ञप्तिके सामने होते हुए भी धवलाकारने उस मतको स्थान क्यों नहीं दिया जो उसके आदरणीय कर्ताको इष्ट था ? क्या त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें उक्त मत प्रक्षिप्त है ? आदि। यद्यपि नं. ४ की बातोंको अकेले उतना महत्त्व नहीं दिया जा सकता तथापि ऊपरकी बातोंके रहते हुए उन्हें दृष्टिसे ओझल भी नहीं किया जा सकता । अन्य भी कुछ इसी प्रकारकी बाते हैं, जिनके समाधानके लिये त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी उपलब्ध प्रतियोंकी सूक्ष्म दृष्टिसे जांच होना आवश्यक प्रतीत होता है। उसके बाद ही किसी निर्णयपर पहुंचना उचित होगा।
(१) देखो अनेकान्त, वर्ष १, पृ० ३९८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org