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जयधवलासहित कषायप्राभूत
वाला अमुक वर्ग दोनों पक्षोंसे तटस्थ रहकर अपनेसे जहां तक बने वहां तक मूल सम्प्रदायको ठीक रखनेके काममें पड़ा । इस वर्गका मुख्य काम परम्परासे चले आये हुए शास्त्रोंको कण्ठस्थ रख उन्हें पढ़ना पढ़ाना था और परम्परासे प्राप्त हुए तत्वज्ञान तथा आचारसे सम्बन्ध रखने वाली सभी बातोंका संग्रह रखकर उसे अपनी शिष्य परम्पराको दे देना था। जिस प्रकार वेवरक्षक पाठक श्रुतियोंको बराबर कण्ठस्थ रखकर एक भी मात्राका फेर न पड़े ऐसी सावधानी रखते और शिष्य परम्पराको सिखाते थे, उसी प्रकार यह तटस्थ वर्ग जैन श्रुतको कंठस्थ रखकर उसकी व्याख्यानोंको समझता, उसके पाठभेवों तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाली कल्पनाको सँभालता और शब्द तथा अर्थसे पठन-पाठन द्वारा अपने श्रुतका विस्तार करता था। यही वर्ग वाचक रूपसे प्रसिद्ध हुआ। इसी कारणसे इसे पट्टावलीमें वाचकवंश कहा गया हो ऐसा जान पड़ता है।'
इसप्रकार पं० जीने वाचक उमास्वाति को दिगम्बर तथा श्वेताम्वर इन दोनों पक्षोंसे बिल्कुल तटस्थ ऐसी एक पूर्वकालीन जैनपरम्पराका विद्वान बतलाकर तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञ भाष्यसे ऐसी बहुत सी बातें भी प्रमाणरूपसे उपस्थित की थीं जिनके आधारपर उन्हें वाचकवंशकी तटस्थताकी कल्पना हुई थी। किन्तु इधर उनके तत्त्वार्थसूत्रके गुजराती अनुवादका जो हिन्दी भाषान्तर प्रकट हुआ है उसकी प्रस्तावनामेंसे उन्होने तटस्थताकी ये सब बातें निकाल दी हैं और जिन बातोंके आधारपर उक्त कल्पना की थी उनकी भी कोई चर्चा नहीं की है और न अपने इस मतपरिवर्तनका कुछ कारण ही लिखा है। उमास्वातिने अपनी तथोक्त स्वोपज्ञ प्रशस्तिमें अपनेको और अपने गुरुओंको वाचक जरूर लिखा है किन्तु वाचकवंशी नहीं लिखा है । इसीसे मुनि दर्शनविजय जीने लिखा था-'वाचक उमास्वाति जी वाचक थे किन्तु वाचकवंशके नहीं थे।
अतः वाचकवंशका सम्बन्ध भले ही श्वेताम्बर परम्परासे रहा है। किन्तु वाचक पदका सम्बन्ध किसी एक परम्परासे नहीं था। यदि ऐसा होता तो जयधवलाकार गुणधरको वाचक
और अपने एक गुरु आर्यनन्दिको महावाचक पदसे अलंकृत न करते । अतः मात्र वाचक कहे जाने मात्रसे गुणधराचार्यको श्वेताम्बर परम्पराका विद्वान नहीं कहा जा सकता। अब रह जाती है समस्या आर्यमंच और नागहस्तीकी, जिन्हें परंपरासे गुणधर आचार्यकृत गाथाएं प्राप्त हुई थीं। इन दोनों आचार्योंका नाम नन्दिसूत्रकी पट्टावलीमें अवश्य आता है और उसमें नागहस्तीको वाचकवंशका प्रस्थापक और कर्मप्रकृतिका प्रधान विद्वान भी कहा गया है। किन्तु इन दोनों आचार्योंके मन्तव्यका एक भी उल्लेख श्वेताम्बर परम्पराके आगमिक या कर्मविषयक साहित्यमें उपलब्ध नहीं होता, जब कि धवला और जयधवलामें उनके मतोंका उल्लेख बहुतायतसे पाया जाता है और ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः जयधवलाकारके सन्मुख इन दोनों आचार्योंकी कोई कृति रहो हो । इन्हीं दोनों आचार्योंके पास कसायपाहुड़का अध्ययन करके आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंकी रचना की थी, और बादको उन्हींके आधारपर अनेक आचार्योने कसायपाहुडपर वृत्तियां आदि लिखीं थीं। सारांश यह है कि दिगम्बरपरम्पराको कसायपाहुड और उसका ज्ञान आर्यमंच और नागहस्तीसे ही प्राप्त हुआ था। यदि ये दोनों आचार्य श्वेताम्बर परम्पराके ही होते तो कसायपाहुड या तो दिगम्बर परम्पराको प्राप्त ही नहीं होता यदि होता भी तो श्वेताम्बर परम्परा उससे एक दम अछूती न रह जाती।
शायद कहा जाये, जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, कि कषाय प्राभृतके संक्रम अनुयोगद्वारकी कुछ गाथाएं कर्मप्रकृतिमें पाई जातो हैं अतः श्वेताम्बर परम्पराको उससे एकदम अछूता
(१) अनेकान्त वर्ष १, पृ० ५७८ ।
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