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________________ जयधवलासहित कषायप्रामृत विरोधको प्राप्त नहीं होता है । इसलिये इसी व्याख्यानको मानना चाहिये, परिकर्मको नहीं, क्योंकि वह सूत्रविरुद्ध है। और जो सूत्रविरुद्ध हो वह व्याख्यान नहीं है क्योंकि उसको व्याख्यान माननेसे अति प्रसंग दोष आता है। शंका-स्वयंभुरमणसे परे ज्योतिष्कदेव नहीं है वह कैसे जाना ? समाधान-'वेछप्पण्णंगुलसदवग्ग' आदि सूत्रसे ही जाना । राजुके अर्धछेद लानेके योग्य संख्यात अधिक जम्बूद्वीपके अर्द्धच्छेद सहित द्वीप सागरोंकी संख्या प्रमाण राजुके अर्द्धच्छेदोकी जो परीक्षाविधि दी है वह अन्य आचार्योंकी उपदेश परम्पराका अनुसरण नहीं करती हैं किन्तु केवल त्रिलोकप्रज्ञप्तिसूत्रका अनुसरण करनेवाली है और ज्योतिष्क देवोंका भागहार बतलाने वाले सूत्रका अवलम्बन करने वाली युक्तिके बलसे हमने उसका कथन किया है।' ऊपर जो गद्य भाग दिया है वह धवलासे दिया है और यह भाग मामूली शब्द भेदके साथ जो कि अशद्धियोंको लिये हए है और लेखकोंके प्रमादका फल जान पडता है त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाया जाता है। उक्त गद्य भागसे यह स्पष्ट है कि ज्योतिष्क देवोंका प्रमाण निकालनेके लिये जो राजके अर्द्धच्छेद धवलाकारने बतलाये हैं जो कि परिकर्मसे विरुद्ध हैं, यद्यपि वे त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें नहीं बतलाये गये, किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिमे जो ज्योतिष्क देवोंका प्रमाण निकालनेके लिये भागहार बतला परसे उन्होंने यह फलितार्थ निकाला है, जैसा कि उक्त गद्यके अन्तिम अंशसे स्पष्ट है। धवलामें 'अम्हेहि पलविदा के आगे दो ऐसी बातें उदाहरणरूपमें और बतलाई है जिनका निरूपण केवल धवलाकारने ही किया है। किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिमे वह अंश नहीं पाया जाता है और न 'अम्हेहि' पाया जाता है । उसमें-'पयद गच्छसाहणमेसा परूवणा परूविदा तदो ण एत्थ इदमेवेति एयंतपरिग्गहो कायक्वों' आदि पाया जाता है। इस परसे यह कहा जा सकता है कि त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी गद्यमें आवश्यक परिवर्तन करके उसे धवलाकारने अपना लिया है। किन्तु यदि उक्त गद्य त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी होती तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारको स्वयं ही ज्योतिविम्बोंका प्रमाण निकालनेके लिये राजूके अर्धच्छेदोंको न कहकर अपनी ही त्रिलोकप्रज्ञप्तिके एक सूत्रके आधारपरसे उनके प्रमाणको फलित करनेकी क्या आवश्यकता थी और फलित करके भी यह लिखना कि 'राजूके अर्द्धच्छेदोंके प्रमाण की जो परीक्षाविधि है वह त्रिलोक प्रज्ञप्तिके अनुसार है और अमुक सूत्रका अवलम्बन लेकर युक्तिके बलसे प्रकृत गच्छका साधन करने के लिये कही गई है' तथा 'प्रकृत व्याख्यान सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त नहीं होता है' आदि त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारकी दृष्टिसे बिल्कुल ही असंगत लगता है। यदि त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारने अपनी त्रिलोकप्रज्ञप्तिका कोई व्याख्यान भी रचा होता तब भी एक बात थी, किन्तु ऐसा भी नहीं है । अतः कमसे कम उक्त गद्य तो अवश्य ही किसीने धवलासे उठाकर आवश्यक परिवर्तनके साथ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमे सामिलित कर दी है, ऐसा प्रतीत होता है। ३ धवला खं० ३, पृ० ३६ में लिखा है'दुगुण दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगोत्ति' तिलोयपण्णत्तिसुत्तादो य णव्वदे। किन्तु प्रयत्न करनेपर भी उक्त गाथांश त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें हमें नहीं मिल सका। ४ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें वीर निर्वाणसे शक राजाका काल बतलाते हुए लिखा है कि ४६१ वर्ष पश्चात् शक राजा हुआ और उसके पश्चात् तीन मत और दिये हैं जिनके अनुसार ९७८५ वर्ष ५ मास बाद अथवा १४७९३ वर्ष बाद अथवा ६०५ वर्ष ५ मास बाद शक राजाकी उत्पत्ति बतलाई है । धवलाके वेदना खण्डमें भी शकराजाका उत्पत्तिकाल बतलाया है, किन्तु उसमें ६०५ वर्ष ५ मास वाली मान्यताको ही प्रथम स्थान दिया गया है और उसके सिवा दो मत और दिये है। एकके अनसार वीर निर्वाणसे १४७९३ वर्ष बाद शक राजा हआ। यह मत त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें भी दिया है । और दूसरेके अनुसार ७९९५ वर्ष ५ मास बाद शक राजा हुआ। यह मत त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें नहीं है। तथा त्रिलोक प्रज्ञप्तिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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