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________________ प्रस्तावना ६३ इसी तरह अन्य भी अनेक प्रमाण उद्धृत किये जा सकते हैं किन्तु उनसे ग्रन्थका भार व्यर्थ ही बढ़ेगा । अतः इतनेसे ही सन्तोष मानकर हम इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि एक तो नियमसार और त्रिलोकप्रज्ञप्ति में जिस लोकविभाग या लोकविभागों की चर्चा है वह यह लोकविभाग नहीं है। दूसरे, लोकविभाग नामके कई ग्रन्थ प्राचीन आचार्योंके द्वारा बनाए गये थे । कमसे कम वेद अवश्य थे, और सर्वनन्दीके लोकविभागसे पृथक थे । सम्भवतः इसीसे नियमसारमें बहुवचन 'लोयविभागेसु' का प्रयोग किया गया है; क्योंकि प्राकृत में द्विवचनके स्थान में भी बहुवचनका प्रयोग होता है । अतः लोकविभागके उल्लेख के आधारपर कुन्दकुन्दको शक सं० ३८० के बाद विद्वान नहीं माना जा सकता, और इसलिये मर्कराके ताम्रपत्र में जिस कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख है उसकी परम्परा कुन्दकुन्द ग्रामके नामपर न मानकर कुन्दकुन्दाचार्यके नामपर माननेमें कोई आपत्ति नहीं है । जब कि आचार्य कुन्दकुन्द मूलसंघके अग्रणी विद्वान् कहे जाते हैं तो कुन्दकुन्दान्वयका उद्भव उन्हींके नामपर हुआ मानना ही उचित प्रतीत होता है । अतः आचार्य कुन्दकुन्द यतिवृषभके बादके विद्वान् नहीं हो सकते । और इसलिये आचार्य इन्द्रनन्दिने जा आचार्य कुन्दकुन्दको द्विविध सिद्धान्तकी प्राप्ति होनेका उल्लेख किया है जिसमें आचार्य यतिवृषभके चूर्णिसूत्र और उच्चारणाचार्यकी वृत्ति भी सम्मिलित है वह ठीक नहीं है । यदि कुन्दकुन्दका दूसरा सिद्धान्तग्रन्थ प्राप्त हुआ होगा तो वह केवल गुणधररचित कषायप्राभृत प्राप्त हुआ होगा । किन्तु उसके सम्बन्ध में भी इन्द्रनन्दिके उल्लेखके सिवाय दूसरा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। श्रुतः श्रुतावतारका उक्त उल्लेख आचार्य यतिवृषभके उक्त समय में बाधक नहीं सकता। 1 आचार्य इन्द्रनन्दिने कुन्दकुन्दके बाद शामकुण्डाचार्य, तुम्बुलूराचार्य और आचार्य समन्तभद्रको द्विविध सिद्धान्तकी प्राप्ति होनेका उल्लेख किया है । तथा बतलाया है कि इनमें से पहले के दो आचार्योंने कषायप्राभृतपर टीकाएं भी लिखी थीं। इन टीकाओंके सम्बन्ध में हम पहले प्रकाश डाल चुके हैं | आचार्य कुन्दकुन्दकी तरह आचार्य समन्तभद्रकी भी किसी सिद्धान्त ग्रन्थपर कोई वृत्ति उपलब्ध नहीं है और न उसका किसी अन्य आधारसे समर्थन ही होता है । तथा समन्तभद्रको शामकुण्डाचार्य और तुम्बुलूराचार्य के पश्चात्का विद्वान मानना भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । अतः इन आचार्यों का उल्लेख भी यतिवृषभके उक्त समय में तबतक बाधक नहीं हो सकता जबतक यह सिद्ध न हो जाये कि इन आचार्योंका उक्त पौवापर्य ठीक है तथा उनके सामने यतिवृषभके चूर्णिसूत्र मौजूद थे । अतः आचार्य यतिवृषभका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका उत्तरार्ध माननेमें कोई भी बाधक नजर नहीं आता । और यतः उनसे पहले कषायप्राभृतपर किसी अन्य वृत्तिके होनेका कोई उल्लेख नहीं मिलता अतः कषायप्राभृतपर जिन वृत्तिटीकाओं के होनेका उल्लेख पहले कर आये हैं वे सब विक्रमकी छठी शताब्दीके बादकी ही रचनाएं होनी चाहिये । इस प्रकार यतिवृषभके समयपर विचार करके हम पुनः आचार्य गुणधरकी ओर आते हैं । गुणधरके समयपर विचार करते हुए यह भी देखनेकी जरूरत है कि षट्खण्डागम और कषायप्राभृतमेंसे किसकी रचना पहले हुई है। दोनों ग्रन्थों की तुलना करते हुए हम पहले लिख आये हैं कि अभी तक यह नहीं जाना जा सका है कि इन दोनोंमेंसे एकका दूसरेपर प्रभाव (१) 'श्राचार्य कुन्दकुन्द श्रौर यतिवृषभमे पूर्ववर्ती कौन' शीर्षकसे श्रनेकान्त वर्ष २, कि० १ में लेख लिखकर सर्वप्रथम पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने ही आचार्य कुन्दकुन्दको यतिवृषभका पूर्ववर्ती विद्वान् वतलाया था । उनकी अन्य युक्तियोंका निर्देश उक्त लेखमें देखना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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