________________
जयधवलासहित कषायप्राभृत
"लोकाने क्रोशयुग्मं तु गव्यूतियूनगोरुतं ।
न्यूनप्रमाणं धनुषां पंचविंशचतुःशतम् ॥" २. त्रि० प्र० में लिखा है कि लोकविभागमें लवणसमुद्रकी शिखापर जलका विस्तार दस हजार योजन है। यह बात वर्तमान लोकविभागमें पाई जाती है। किन्तु यहां त्रिलोकप्रज्ञप्तिकार लोकविभागके साथ 'संगाइणिए। विशेषणका प्रयोग करते हैं । यथा
"जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा बससहस्सा।
एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिद्दिढें ॥४१॥" यहां 'संगाइणिए। विशेषण सम्भवतः किसी अन्य लोकविभागसे इसका पृथक्त्व बतलानेके लिये लगाया गया है। किन्तु इससे यह न समझ लेना चाहिये कि यह संगाइणी लोकविभाग ही वर्तमान लोकविभाग है; क्योंकि त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें संगाइणीके कर्ताके जो अन्य मत दिये हैं वे इस लोकविभागमें नहीं पाये जाते । यथा
"पणुवीस जोयणाई दारापमुहम्मि होदि विक्खंभा। संगायणिकत्तारो एवं णियमा परूवेदि ॥१८॥ वासठि जोयणाई दो कोसा होदि कुंडविच्छारो।
संगायणिकत्तारो एवं णियमा परूवेदि ॥२०॥" इनमें संगायणिके कर्ताके मतसे गंगाका विष्कंभ २५ योजन और जिस कुण्डमें वह गिरती है उस कुण्डका विस्तार ६२ योजन दो कोस बतलाया है। किन्तु लोकविभागमें गंगाका विष्कम्भ तो बतलाया ही नहीं और कुण्डका विस्तार भी ६० योजन ही बतलाया है। अतः प्रकृत लोकविभाग न तो वह लोकविभाग ही है और न संगायणी लोकविभाग ही है।
३. जिस तरह त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें लोकविभाग और संगायणि लोकविभागका उल्लेख किया है उसी तरह एक लेोगाइणि ग्रन्थका भी उल्लेख किया है। यथा
"अमवस्साए उवही सरिसे भूमीए होदि सिदपक्खे । कम्म वट्टेदि णहेण कोसाणि दोणि पुणमीए ॥३६।। हायदि किण्हपक्खे तेण कमेणं च जाव वढिगदं।
एवं लोगाइणिए गंधपवरम्मि णिद्दिढें ॥३७॥" इसमें बतलाया है कि लोगइणि ग्रन्थमें कृष्णपक्ष और शुक्लपक्षमें लवण समुद्र के ऊपर प्रतिदिन दो कोस जलकी हानि और वृद्धि होती है ऐसा कहा है। किन्तु प्रकृत लोकविभागमें बतलाया है कि अमावस्यासे पूर्णमासी तक ५००० योजन जलकी वृद्धि होती है अतः पांच हजारमें १५ का भाग भाग देनेसे प्रतिदिन जलकी वृद्धिका परिमाण आजाता है। ४. त्रि० प्र० में अन्तीपजोंको वर्णन करके लिखा है
"लोयविभायाइरिया दीवाण कुमाणुसेहिं जुत्ताणं ।
अण्णसरूवेण हिदि भासते तप्परूवमो॥८४॥" ' अर्थात्-लोकविभागके कर्ता आचार्य कुमनुष्योंसे युक्त द्वीपोंकी स्थिति अन्य प्रकारसे कहते हैं, उसका हम प्ररूपण करते हैं।
किन्तु प्रकृत लोकविभागमें अन्तर्वीपोंका जो वर्णन किया है वह त्रिलोकप्रज्ञप्तिसे मिलता हुआ है और इसका एक दूसरा सबूत यह है कि उसके समर्थनमें संस्कृत लोकविभागके रचयिताने त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी गाथाएँ उद्धृत करते हुए उक्त गाथासे कुछ पहले तककी ही गाथाएं उद्धृत की हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org