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________________ प्रस्तावना ६१ छ आचार्यों का उल्लेख है । तथा उसके लिखे जानेका समय सम्वत् ३८८ भी उसमें दिया है । इन छह आचार्योंका समय यदि १५० वर्ष भी मान लिया जाय तो ताम्रपत्र में उल्लिखित अन्तिम श्री गुणनन्दि आचार्यका समय शक सं० २३८ ( वि० सं० ३७३ ) के लगभग ठहरता है | ये गुणनन्दि कुन्दकुन्दान्वयके प्रथम पुरुष नहीं थे किन्तु कुन्दकुन्दान्वय में हुए थे । इसका मतलब यह हुआ कि कुन्दकुन्दान्वय उससे भी पहलेसे प्रचलित थी । और इसलिये आचार्य कुन्दकुन्द विक्रमकी तीसरी शताब्दीसे भी पहले के विद्वान थे। किन्तु श्रीयुत प्रेमीजीका मन्तव्य है कि कुन्दकुन्दान्वयका अर्थ आचार्य कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परा न करके कौण्डकुन्दपुर ग्रामसे निकली हुई परम्परा करना चाहिये। उसका कारण यह है कि कुन्दकुन्द के नियमसार की सतरहवीं गाथा में लोकविभाग नामक ग्रन्थका उल्लेख है । और वर्त्तमान में जो संस्कृत लोकविभाग पाया जाता है, उसके अन्तमें लिखा है कि पहले सर्वनन्दी आचार्यने शक सं० ३८० में शास्त्र (लोकविभाग ) लिखा था, उसीकी भाषाको परिवर्तित करके यह संस्कृत लोकविभाग रचा गया है। इस परसे यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि यतः कुन्दकुन्दने अपने नियमसारमें शक सं० ३८० में रचे गये लोकविभाग ग्रन्थका उल्लेख किया है अतः वे मर्करा ताम्रपत्र में उल्लिखित कुन्दकुन्दान्वय के प्रवर्तक नहीं हो सकते । नियमसारकी वह गाथा तथा उससे पहलेकी गाथा इस प्रकार है "माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा । सत्तविहा णेरड्या णादव्वा पुढविभेण ॥ १६ ॥ चउदह भेवा भणिवा तेरिच्छा सुरगणा चउवभेदा । एसि वित्थारं लोयविभागेसु णावव्वं ॥ १७॥” पद्मप्रभ मलधारी देवने इसकी टीकामें लिखा है कि इन चारगतिके जीवोंके भेदोंका विस्तार लोकविभाग नामके परमागम में देखना चाहिये । वर्तमान लोक विभाग में अन्य गतिके जीवोंका तो थोड़ा बहुत वर्णन प्रसङ्गवश किया भी गया है किन्तु तिर्यञ्चोंके चौदह 'भेदोंका तो वहां नाम भी दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः यदि नियमसार में लोकविभाग नामके परमागमका उल्लेख है तो वह कमसे कम वह लोकविभाग तो नहीं है जिसकी भाषाका परिवर्तन करके संस्कृत लोकविभागकी रचना की गई है और जो शक सं० ३८० सर्वनन्दिके द्वारा रचा गया था। त्रिलोक प्रज्ञप्ति में भी लोकविभाग, लोकविनिश्चय आदि ग्रन्थोंके मतों का उल्लेख जगह जगह मिलता है । लोकविभागके मतोंको वर्तमान लोकविभाग में खोजनेपर उनमें से अनेकोंके बारे में हमें निराश होना पड़ा है । यहां हम उनमें से कुछको उद्धृत करते हैं १. त्रि. प्र. में लिखा है कि लोक विभागमें लोकके ऊपर वायुका घनफल अमुक बतलाया है । यथा— Jain Education International "दो छ- बारस भागन्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं । लोयडवरिम्मि एवं लोयविभायम्मि पण्णत्तं ॥ २८२ ॥ " किन्तु लोकविभागमें लोकके ऊपर तीनों वातवलयोंकी केवल मोटाई बतलाई है । यथाइतिहासलेखक कुछ भी देखे विना ही दूसरी परम्परा के सम्बन्धमें इस प्रकारकी कल्पनाओं के आधारपर भ्रम फैलाने की चेष्टा करते हैं और स्वयं वास्तविक इतिहासको बिगाड़ कर पिछले इतिहास विचारकोंपर वास्तविक इतिहासको बिगाड़नेका लांछन लगाते है । किमाश्चर्यमतः परम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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