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________________ .६० जयधवलासहित कषायप्राभृत इसी प्रकार चैत्यगृह, आयतन, प्रतिमाकी चर्चा करनेसे वे चैत्यवासके समयके और यंत्र तंत्र मंत्रका उल्लेख करनेसे तांत्रिक मतके समयके विद्वान नहीं कहे जा सकते हैं। जिनालय और जिनविम्बोंके निर्माणको प्रथा चैत्यवाससे सम्बन्ध नहीं रखती। 'चैत्यवास चला' इससे ही स्पष्ट है कि चैत्य पहलेसे ही होते आये हैं । यंत्र तंत्र मंत्रके कारण दान देने की प्रवत्ति एक ऐसी प्रवत्ति है जो किसी सम्प्रदायके उद्भवसे सम्बन्ध न रखकर पंचमकालके मनुष्योंकी नैसर्गिक रुचिको द्योतित करती है। अतः इनके आधारपर भी कुन्दकुन्दको विक्रमकी छठी शताब्दीका विद्वान नहीं माना जा सकता। हां. रयणसार ग्रन्थसे जो कुछ उद्धरण दिये गये हैं वे अवश्य विचारणीय हो सकते थे। किन्तु उसकी भाषाशैली आदि परसे प्रो० ए० एन० उपाध्येने अपनी प्रवचनसारकी भूमिकामें उसके कुन्दकुन्दकृत होनेपर आपत्तिकी है। ऐसा भी मालम हुआ है कि रयणसारकी उपलब्ध प्रतियोंमें भी बड़ी आसमानता है । अतः जब तक रयणसारकी कोई प्रामाणिक प्रति उपलब्ध न हो और उसकी कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंके साथ एकरसता प्रमाणित न हो तब तक उसके आधारपर कुन्दकुन्दको विक्रमकी छठी शताब्दीका विद्वान नहीं माना जा सकता। जिस प्रकार मुनिजीने मर्कराके उक्त ताम्रपत्रको जाली कहनेका अतिसाहस किया है उसी प्रकार उन्होने एक और भी अति साहस किया है। मुनि जी लिखते हैं 'पट्टावलियोंमें कुन्दकुन्दसे लोहाचार्य पर्यन्तके सात आचार्योंका पट्टकाल निम्नलिखित क्रम से मिलता है१ कुन्दकुन्दाचार्य ५१५-५१९ २ अहिवल्याचार्य ५२०-५६५ ३ माघनन्द्याचार्य ५६६-५९३ ४ धरसेनाचार्य ५९४-६१४ ५ पुष्पदन्ताचार्य ६१५-६३३ ६ भूतवल्याचार्य ६३४-६६३ ७ लोहाचार्य ६६४-६८७ 'पट्टावलीकार उक्त वर्षोंको वीर निर्वाणसम्बन्धी समझते हैं, परन्तु वास्तवमे ये वर्ष विक्रमीय होने चाहिये, क्योंकि दिगम्बर परम्परामें विक्रमकी बारहवीं सदीतक बहुधा शक और विक्रम संवत् लिखनेका ही प्रचार था। प्राचीन दिगम्बराचार्योंने कहीं भी प्राचीन घटनाओंका उल्लेख वीर संवतके साथ किया हो यह हमारे देखने में नहीं आया तो फिर यह कैसे मान लिया जाय कि उक्त आचार्योंका समय लिखने में उन्होंने वीर सम्वत्का उपयोग किया होगा। जान पड़ता है कि सामान्यरूपमें लिखे हुए विक्रम वर्षो को पिछले पट्टावलीलेखकोंने निर्वाणाब्द मानकर धोखा खाया हैं और इस भ्रमपूर्ण मान्यताको यथार्थ मानकर पिछले इतिहासविचारक भी वास्तविक इतिहासको बिगाड़ बैठे हैं।' श्र० म० पु० ३४५-३४६। मुनि जी त्रिलोकप्रज्ञप्तिको कुन्दकुन्दसे प्राचीन मानते है, और त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें वीरनिर्दाणसे बादकी जो कालगणना दी हैं वह हम पहले लिख आये हैं । बादके ग्रन्थकारों और पट्टावलीकारोंने भी उसीके आधारपर कालगणना दी है । ६८३ वर्षकी परम्परा भी वीरनिर्वाण सम्वत्के है। नन्दी संघकी पटटावली में भी जो काल गणना दी है वह भी स्पष्ट रूपमें वीर निर्वाण सम्वत्के आधारपर दी गई हैं । मालूम होता है मुनि जीने इनमेंसे कुछ भी नहीं देखा । यदि देखा होता तो उन्हें यह लिखनेका साहस न होता कि प्राचीन दिगम्बराचार्योंने कहीं भी प्राचीन घटनाओंका उल्लेख वीर संवत्के साथ किया हो यह हमारे देखने में नहीं आया। आश्चर्य है कि मुनि जी जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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