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प्रस्तावना
५६ .
कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी बहुत सी गाथाएं त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें हैं और इसलिये कुन्दकुन्द यतिवृषभके बादके विद्वान नहीं हो सकते।
असलमें त्रिलोकप्रज्ञप्तिके देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक संग्रह प्रन्थ है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारने उसमें चर्चित विषयके सम्बन्धमें पाये जानेवाले अनेक मतभेदोंका संग्रह तो किया ही है। साथ ही साथ उन्हें अपनेसे पूर्वके आचार्योंकी जो गाथाएँ उपयोगी और आवश्यक प्रतीत हुई यथास्थान उनका भी उपयोग उन्होंने किया है। यद्यपि उनके आशयकी उन्हींके समकक्ष गाथाएँ वे स्वयं भी बना सकते थे, किन्तु पूर्वाचार्योंकी कृतिको महज इसलिये बदलना कि वह उनकी कृति कही जाय, उनके जैसे वीतरागी और आचार्य परम्पराके उपासक ग्रन्थकारको उचित प्रतीत नहीं हुआ होगा। क्योंकि उनकी ग्रन्थरचनाका उद्देश्य श्रुतकी रक्षा करना था न कि अपने कर्तृत्वको ख्यापन करना । अतः यदि उन्होंने कुन्दकुन्द जैसे आचार्यके वचनोंको अपने ग्रन्थमें संकलित किया हो तो कोई अचरजकी बात नहीं है।
२. कुर्ग इन्सक्रिप्शंसमें मर्कराका एक ताम्रपत्र प्रकट हुआ है। उसमें कुन्दकुन्दान्वयके
(१) 'श्रमण भगवान महावीरमें ' मुनि कल्याण विजयजीने कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी छठी शताब्दी माना है। यतः उक्त ताम्रपत्र प्रापकी इस मान्यताके विरुद्ध जाता है अतः आपका कहना है कि या तो उस पर पड़ा हुआ संवत् कोई अर्वाचीन सम्वत् है या फ़िर यह ताम्रपत्र ही जाली है। हमने कई इतिहासज्ञों से मालम किया तो उनसे यही ज्ञात हुआ कि उस तरफके जितने भी ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं वे शक सम्वत्के ही पाये गये हैं। अतः प्रकृत ताम्रपत्र पर भी शक सम्वत् ही होना चाहिये। ताम्रपत्रको जाली कहना तो अतिसाहसका काम है। जब शक सम्वत् ३८८ के ताम्रपत्र में ही 'भट्टार' शब्द पाया जाता है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि भट्टारकी युग विक्रमकी सातवीं शताब्दीके पहले 'भट्टार' शब्द आदर सूचक शब्दके रूपमें व्यवहृत ही नहीं होता था। विक्रमकी पांचवीं शताब्दीके अन्तमें होनेवाले गुप्तवंशीनरेश कुमारगुप्तके सिक्कोंमें उन्हें परम भट्टारक लिखा हुआ मिलता है। अतः उसी समयके उक्त ताम्रपत्रमें 'भट्टार' शब्दका व्यवहार पाया जानेसे वह अर्वाचीन या जाली कैसे कहा जा सकता है ?
मुनि जीने भट्टार शब्दकी ही तरह कुछ अन्य शब्दोंको कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमेंसे खोजकर उनके आधारपर अपनी मान्यताको पुष्ट करने की व्यर्थ चेष्टा की है।
कुन्दकुन्दाचार्यने अपने समयसारमे कहा है कि लोगोंके विचारमे प्राणियोंको विष्णु बनाता है । इसपर मुनिजीका कहना है कि विष्णुको कर्ता माननेवाले वैष्णव सम्प्रदायकी उत्पत्ति ई० स० की तीसरी शताब्दीमें हुई थी अतः कुन्दकुन्द उसके बादके हैं । किन्तु विष्णु देवता तो वैदिक कालीन है अतः वैष्णव सम्प्रदायकी उत्पत्तिसे पहले विष्णुको कर्ता नहीं माना जाता था इसमें क्या प्रमाण है ? कर्तृत्ववादकी भावना बहुत प्राचीन है। इसी प्रकार शिव आदि भी पौराणिककालके देवता नहीं हैं। हिन्दतत्त्वज्ञाननो इतिहासमें लिखा है
"आर्योना रुद्रनी अने द्राविडोना शिवनी भावनानुं सम्मेलन रामायण पहेला थयेलं जणाय छ । ई० स० पू० ५०० ना आरसामा हिन्दुप्रोनो वैविकधर्म तामीलदेशमा प्रवेश पाम्यो त्यारे विष्णु अने शिवसंबंधी भक्तिभावना क्रमशः संसार अने त्यागने पोषनारी दाखल थवा यामी। वन्ने प्रणालिका अविरोधी भाव थी टकी रही। परन्त जारे बौद्धीने अनें जैनोऐ ते बे देवोनी भावनाने डगाववा प्रयत्न कर्या त्यारे प्रत्येक प्रणालिकाए पोतपोताना देवनी महत्ता वधारी अनुयायिओंमा विरोध जगव्यो।"
इससे स्पष्ट है कि द्रविण देशमें कुन्दकुन्दके पहले से ही शिवकी उपासना होती थी। अतः यदि कुन्दकुन्दने अपने ग्रन्थोंमें विष्णु शिव आदि देवताओंका उल्लेख किया तो उससे कुन्दकुन्द पौराणिक कालके कैसे हो सकते हैं? प्रत्युत उन्हें उसी समयका विद्वान मानना चाहिये जिससमय तामिलमें उक्त भावना प्रबल थी।
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