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जयधवलासहित कषायप्राभृत है। किन्तु दोनोंके मतभेदोंकी चर्चा धवला-जयधवलाकार स्वयं करते हैं तथा यह भी कहते हैं कि षटखण्डागमसे कषायप्राभृतका उपदेश भिन्न है। इससे इतना ही स्पष्ट होता है कि भूतवलि पुष्पदन्तकी गुरुपरम्परासे गुणधराचार्यकी गुरुपरम्परा भिन्न थी। किन्तु दोनोंमें कौन पहले हुआ और कौन पीछे ? इसपर कोई भी स्पष्ट प्रकाश नहीं डालता। दोनोंको ही वी० नि० ६८३ के बादमें हुआ बतलाते हैं।
श्रुतावतारमें पहले षटखण्डागमकी उत्पत्तिका वर्णन किया है और उसके पश्चात् कषायप्राभृतकी उत्पत्तिका वर्णन किया है। श्रीवीरसेन स्वामीने भी षट्खण्डागमपर पहले टीका लिखी है और कषायप्राभृतपर बादमें । तथा श्रुतावतारोंके अनुसार षटखण्डागम पुस्तकके रचे जानेपर ज्येष्ठ शुक्ल पंचमीके दिन उसका पूजा महोत्सव किया गया। इन सब बातोंको दृष्टिमें रखते हुए तो ऐसा लगता है कि षटखण्डागमके बाद कषायप्राभृतकी रचना हुई है। किन्तु हमारी यह केवल कल्पना ही है। तो भी दोनोंके रचनाकालमें अधिक अन्तर नहीं होना चाहिये; क्योंकि दोनोंकी रचनाएं ऐसे समयमें हुई हैं जब अंगज्ञानके अवशिष्ट अंश भी लुप्त होते जाते थे और इस तरह परमागमके विच्छेदका भय उपस्थित हो चुका था। यों तो पूर्वोका विच्छेद वीरनिर्वाणसे ३४५ वर्षके पश्चात् ही हो गया था किन्तु उनका आंशिक ज्ञान बराबर चला आता था। जब उस बचे खुचे आंशिक ज्ञानके भी लोपका प्रसंग उपस्थित हुआ तब उसे सुरक्षित रखनेकी चिन्ता हुई। जिसके फलस्वरूप षट्खण्डागम और कषायप्राभृतकी रचना हुई।
__ यतिवृषभके समयका विचार करते हुए हम त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें दी गई ६८३वर्षकी अङ्ग ज्ञानियोंकी आचार्य परम्पराका उल्लेख कर आये हैं और फुटनोटमें यह भी बतला आये हैं कि नन्दिसड़की पट्टावलीसे उसमें ११८ वर्षका अन्तर है । त्रिलोक प्रज्ञप्तिके अनुसार अन्तिम आचारांगधर लोहाचार्य तक वीर निर्वाणसे ६८३ वर्ष होते हैं किन्तु नन्दि संघकी पट्टावलीके अनुसार ५६५ वर्ष ही होते हैं । इसप्रकार दोनों में ११८ वर्षका अन्तर है। यदि अन्तिम आचारांगधर लोहाचार्यके समयकी जांच हो सके तो इस अन्तरका स्पष्टीकरण हो सकता है। किंवदन्ती है कि इन लोहाचार्यने अग्रवालको जैन धर्म में दीक्षित किया था। यदि अग्रोहाके टीलेसे कुछ ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हो सके तो शायद उससे इस समस्यापर कुछ प्रकाश पड़ सके। किन्तु जब तक ऐसा नहीं होता तब तक यह विषय विवादग्रस्त बना ही रहेगा। फिर भी आचार्य कुन्दकुन्द वगैरहके समयको देखते हुए त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें जो ग्यारह अंगके धारी ५ आचार्योंका समय २२० वर्ष और आचारांगके धारी ४ आचार्योंका समय ११८ वर्ष दिया है वह ऊपरके अन्य आचार्योंके कालकी अपेक्षा अधिक प्रतीत होता है और उससे पट्टावली प्रतिपादित १२३ और ६७ वर्ष का समय अधिक उपयुक्त अँचता है। यदि यही समय ठीक हो तो आचार्य गुणधरको वीर नि० सं०५६५ के लगभगका आचार्य मानना होगा। यह समय श्वेताम्बर पट्टावली प्रतिपादित आर्य नागहस्तीके समयके भी अनुकूल है।
यदि आर्यमंक्षु नागहस्तीके दादागुरु रहे हों तो उन्हें भी आचार्य गुणधरका लघु समकालीन विद्वान होना चाहिए और उस अवस्थामें आर्यमंच और नागहस्तिको गुणधरसे ही गाथाओंकी प्राप्ति होनी चाहिए न कि आचार्य परम्परासे । यदि ये सब सम्भावनाएं ठीक हो तो गुणधरका समय वीर नि० सं० ६०० तक, और आर्यमंक्षुका समय ६२० तक तथा नागहस्तिका समय ६२० से आगे समझना चाहिये । किन्तु इस अवस्थामें यतिवृषभ आर्यमंक्ष और नागहस्तिके शिष्य नहीं हो सकते, क्योंकि त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारसे वे वीर नि० सं० १००० के बादके विद्वान ठहरते हैं । यदि चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ उन्हीं नागहस्तिके अन्तेवासी हैं जिनका
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