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________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत हम इसी निर्णय पर पहुंच सके हैं कि चूर्णिकारने चूर्णिसूत्र अवश्य देखे हैं। अतः चूर्णिसूत्रोंकी रचना कर्मप्रकृतिकी चूर्णिसे पहले हुई है। २. चूर्णिनामसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें बहुतसा साहित्य पाया जाता है। जैसे आवश्यक चूर्णि, निशीथचूर्णि, उत्तराध्ययन चूर्णि आदि । एक समय आगमिक ग्रन्थोंपर इस चूर्णि साहित्यके रचना करनेकी खूब प्रवृत्ति रही है। जिनदासगणि महत्तर एक प्रसिद्ध चूर्णिकार हो गये हैं जिन्होंने वि० सं० ७३३ में नन्दिचूर्णि बनाई थी। किन्तु चूर्णिसाहित्यका सर्जन गुप्तकालसे ही होना शुरू हो गया था ऐसा श्वेताम्बर विद्वान मानते हैं। अतः चूर्णिसूत्र भी गुप्तकालके लगभगकी ही रचना होनी चाहिये । ३. आचाराङ्गनियुक्ति तथा विशेषावश्यक भाष्यमें भी चूर्णिसूत्रके समान ही कषायकी प्ररूपणाके आठ विकल्प किये गये हैं। नियुक्तिमें तो विकल्पोंके केवल नाम ही गिनाये हैं किन्तु विशेषावश्यकमें उनका वर्णन भी किया गया है । चूर्णिसूत्र निम्न प्रकार हैं--- "कसानो ताव णिक्खिवियवो णामकसाओ ट्ठवणकसाओ दन्वकसानो पच्चयकसानो समुप्पत्तियकसाओ प्रादेसकसानो रसकसाओ भावकसानो चेदि । विशेषावश्यकमें लिखा है-- "नाम ठवणा दविए उप्पत्ती पच्चए य आएसे । रस-भाव-कसाए वि य परूवणा तेसिमा होइ ॥२९८०॥" इन विकल्पोंका निरूपण करते हुए भाष्यकार भी चूर्णिसूत्रकारकी ही तरह नामकषाय, स्थापनाकषाय और द्रव्यकषायको सुगम जानकर छोड़ देते हैं और केवल नोकर्मद्रव्यकषायका उदाहरण देते हैं और वह भी वैसा ही देते हैं जैसा चूर्णिसूत्रकारने दिया है । यथा-"णोआगमदत्वकसानो जहा सज्जकसानो सिरिसकसानो एवमादि।" वृ० सू० । और वि० भा० में है-"सज्जकसायाईनो नोकम्मदव्वनो कसानोऽयं।" इसके पश्चात् समुत्पत्तिकषाय और आदेशकषायके स्वरूपमें शब्दभेद होते हुए भी आशयमें भेद नहीं है। यहां तक ऐक्य को देखकर यह कह सकना कठिन है कि किसने किसका अनुसरण किया है। किन्तु आगे आदेशकषायके स्वरूपमें अन्तर पड़ गया है । चूर्णिसूत्रकारका कहना है कि चित्रमें अङ्कित क्रोधी पुरुषकी आकृतिको आदेशकषाय कहते हैं। यथा "आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिदणिडालो भिडि काऊण ।" । अर्थात्-क्रोधके कारण जिसकी भृकुटि चढ़ गई है और मस्तकमें तीन वली पड़ गई हैं ऐसे रुष्ट मनुष्यकी चित्रमें अङ्कित आकृतिको आदेशकषाय कहते हैं। किन्तु भाष्यकारका कहना है कि अन्तरंगमें कषायके नहीं होनेपर भी जो क्रोधी मनुष्यका छद्मरूप धारण किया जाता है जैसा कि नाटकमें अभिनेता वगैरहको स्वांग धारण करना पड़ता है वह आदेशकषाय है। आदेशकषायका यह स्वरूप बतलाकर भाष्यकार चूर्णिसूत्रमें निर्दिष्ट स्वरूपका केचित करके उल्लेख करते हैं और कहते हैं कि वह स्थापनाकषायसे भिन्न नहीं है। अर्थात् चूर्णिसूत्र में जो आदेशकषायका स्वरूप बतलाया है, भाष्यकारके मतसे उसका अन्तर्भाव स्थापनाकषायमें हो जाता है। यथा "आएसओ कसाम्रो कइयवकयभिउडिभंगुराकारो। केई चिताइगोठवणाणत्यंतरी सोऽयं ॥२९८१॥" (१) गुज० जै० सा० इ०, पृ० १३० । (२) पृ० २८३ । (३) पृ० २८५ । (४) पृ० ३०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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