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________________ प्रस्तावना पर । यद्यपि कल्किके सम्बन्धमें जो बातें त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें लिखी हैं उन सब बातोंका सम्बन्ध किसीके साथ नहीं मिलता है, फिर भी ऐतिहासिक दृष्टिसे इतना ही मानकर चला जा सकता है कि गुप्त राज्यके बाद एक अत्याचारी राजाके होनेका उल्लेख किया गया है। स्व० जायसवाल जीके लेखानुसार ईस्वी सन् ४६० के लगभग गुप्तसाम्राज्य नष्ट हुआ और उसके बाद तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुलके अत्याचारोंसे भारतभूमि त्रस्त हो उठी। अतः त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी रचना जल्दीसे जल्दी इसी समयके लगभग हुई मानी जा सकती है। यह समय विक्रमकी छठी शताब्दीका उत्तरार्ध और शककी पांचवी शताब्दीका पूर्वार्ध पड़ता है। इससे पहले उसकी रचना माननेसे उसमें गुप्तराज्य और उसके विनाशक कल्किराज्यका उल्लेख होना संभव प्रतीत नहीं होता। अतः इसे यतिवृषभके समयकी पूर्व अवधि माना जा सकता है। उत्तर अवधिके बारेमें और विचार करना होगा। १. श्वेताम्बर सम्प्रदायमें कर्मप्रकृति नामका एक ग्रन्थ है जो परम्परासे किन्हीं शिवशर्म सूरिके द्वारा रचित कहा जाता है। इन शिवशर्मसूरिको श्वेताम्बर विक्रमकी पांचवी शताब्दीका विद्वान मानते हैं । कर्मप्रकृतिपर एक चूर्णि है जिसके रचयिताका पता नहीं है । इस चूर्णिकी तुलना चूर्णिसूत्रों के साथ करके हम पहले बतला आये हैं कि कहीं कहीं दोनोंमें कितना अधिक साम्य है। कर्मप्रकृतिके उपशमना करणकी ५७ वी गाथाकी चूर्णि तो चूर्णिसूत्रसे बिल्कुल मिलती हुई है और खास बात यह है कि उस चूर्णिमें जो चर्चा की गई है वह कर्मप्रकृतिकी ५७ वीं गाथामें तो है ही नहीं किन्तु आगे पीछे भी नहीं है। दूसरी खास बात यह है कि उस चूर्णिमें 'तस्स विहासा' लिखकर गाथाके पदका व्याख्यान किया गया है जो कि चूर्णिसूत्रकी अपनी शैली है। कर्मप्रकृतिकी चूर्णिमें उस शैलीका अन्यत्र आभास भी नहीं मिलता। इन सब बातोंसे (१) हम लिख आये हैं कि जिनसेनाचार्यने अपने हरिवंशपुराणमें त्रिलोकप्रज्ञप्तिके अनुसार ही राजकाल गणना दी है और भगवान महावीरके निर्वाणसे कल्किके राज्यकालके अन्त तक एक हजार वर्षका समय त्रिलोकप्रज्ञप्तिके अनुसार ही बतलाया है। किन्तु शक राजाकी उत्पत्ति महावीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ मास बाद बतलायी है और लिखा है कि महावीर भगवानकै मुक्ति चले जाने के प्रत्येक एक हजार वर्षके बाद जैन धर्मका विरोधी कल्कि उत्पन्न होता है यथा "वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पञ्चागं मासपञ्चकम् । मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥५५१॥ मुक्ति गते महावीरे प्रतिवर्षसहस्रकम् । एकैको जायते कल्की जिनधर्मविरोधकः ॥५५२॥" त्रिलोकसारमें भी महावीरके निर्वाणके ६०५ वर्ष पांच मास बाद शकराजाकी और १००० वर्ष बाद कल्किकी उत्पत्ति बतलाई है । यथा-- "पणछस्सयवस्सं पणमासजदं गमिय वीरणिन्वइदो। सकराजो तो कक्की चदुणवतियमहियसगमासं ॥८५०॥" त्रिलोक प्रज्ञप्तिके और इन ग्रन्थोंके कल्किके समयमें ४२ वर्षका अन्तर पड़जाता है। शकके ३९५ वर्ष बाद कल्किकी उत्पत्ति माननेसे कल्किका समय ३९५+७८-४७३ ई० आता है जो गुप्तसाम्राज्यके विनाश और उसके नाशक मिहिरकुल कल्किके समयके अधिक अनुकल है । (२) गुज) जै० सा० इ० ५० १३९ । (३) पु० २४-२५ । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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