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प्रस्तावना
इस प्रकार चूर्णिसूत्रगत आदेशकषायके स्वरूपपर भाष्यकारने जो आपत्ति की, उसका समाधान जयधवलामें देखनेको मिलता है । जयधवलाकारने आदेशकषाय और स्थापनाकषायके भेदको स्पष्ट किया है। अतः भाष्यकारने 'केई' करके आदेशकषायके जिस स्वरूपका निर्देश किया है वह चूर्णिसूत्र में निर्दिष्ट स्वरूप ही है। अतः चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ भाष्यकार श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणसे पहले हुए हैं।
__ श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार क्षमाश्रमणजीका समय विक्रमकी सातवीं सदीका पूर्वार्ध माना जाता है। यह भी मालूम हुआ है कि विशेषावश्यकभाष्यकी एक प्रतिमें उसका रचनाकाल शकसम्वत् ५३१ (वि० सं० ६६६) दिया है। अतः यतिवृषभ वि० सं० ६६६ के बादके विद्वान् नहीं हो सकते। इस प्रकार उनकी उत्तर अवधि विक्रम सं० की सातवीं शताब्दीका मध्य भाग निश्चित होती है।
इस विवेचनसे हम इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि यतः त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें गुप्तवंश और उसके नाशक कल्कि राजाका उल्लेख है अतः यतिवृषभ विक्रमकी छठी शताब्दीके उत्तरार्धसे पहलेके विद्वान नहीं हो सकते । और यतः उनके मतका निर्देश विशेषावश्यकभाष्यमें पाया जाता है, जिसकी रचना वि० सं० ६६६ में होनेका निर्देश मिलता है अतः वे विक्रमकी सातवीं शताब्दीके . मध्यभागके बादके विद्वान नहीं हो सकते । अतः वि० सं०५५० से वि० सं०६५० तकके समयमें यतिवृषभ हुए हैं।
यतिवृषभके इस समयके प्रतिकूल कुछ आपत्तियाँ खड़ी होती हैं अतः उनपर भी विचार करना आवश्यक है।
___ इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें कषायप्राभृतपर चूर्णिसूत्रों और उच्चारणावृत्तिकी रचना हो जानेके बाद कुण्डकुन्दपुरमें पद्मनन्दि मुनिको उसकी प्राप्ति हुई ऐसा लिखा है। और उसके बाद शामकुण्डाचार्य, तुम्बुलूराचार्य, और समन्तभद्रको उसकी प्राप्ति होनेका उल्लेख किया है। यदि यतिवृषभका समय विक्रमकी छठी शताब्दी माना जाता है तो ये सब प्राचार्य उसके बादके विद्वान ठहरते हैं जो कि मान्य नहीं हो सकता। अतः यह विचार करना आवश्यक है कि इन्द्रनन्दिके द्वारा निर्दिष्ट क्रम कहाँ तक ठीक है। सबसे पहले हम कुण्डकुन्दपुरके आचार्य पद्मनन्दिको ही लेते हैं। यहाँ यह बतला देना अनुपयुक्त न होगा कि कुण्डकुन्दपुरके पद्मनन्दिसे प्राचार्य कुन्दकुन्दका अभिप्राय लिया जाता है।
__ आचार्य कुन्दकुन्दको यतिवृषभके पश्चात्का विद्वान बतलानेवाला उल्लेख श्रुतावतारके आचार्य सिवाय अन्यत्र हमारे देखने नहीं आया । इन्द्रनन्दिकी इस मान्यताका आधार क्या कुन्दकुन्द था यह भी उन्होंने नहीं लिखा है। यदि दोनों या किसी एक सिद्धान्त ग्रन्थपर
और प्राचार्य कुन्दकुन्दकी तथोक्त टीका उपलब्ध होती तो उससे भी इन्द्रनन्दिके उक्त यतिवृषभ कथनपर कुछ प्रकाश पड़ सकता था किन्तु उसके अस्तित्वका भी कोई प्रमाण उप
लब्ध नहीं होता। ऐसी अवस्थामें इन्द्रनन्दिके उक्त कथनको प्रमाणकोटिमें कैसे लिया जा सकता है ?
१. इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके सिवाय प्राचार्य कुन्दकुन्द और यतिवृषभके पौर्वापर्यपर त्रिलोक प्रज्ञप्तिसे भी कुछ प्रकाश पड़ता है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें नौ अधिकार हैं। ग्रन्थके प्रारम्भमें तो ग्रन्थकारने पंच परमेष्ठीका स्मरण किया है, किन्तु आगे प्रत्येक अधिकारके अन्त और आदिमें
(१) पृ० ३०१। (२) श्रीमान् मुनि जिनविजयजीने जैसलमेर भंडारके विशेषावश्यकभाष्यकी एक प्रतिमें इस रचनासंवत्के होनेका उल्लेख पं० सुखलालजीके पत्रमें किया है ।
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