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________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत इस प्रकार वीर निर्वाणके बादकी आचार्य परम्पराका उल्लेख करके त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें वीरनिर्वाणके बादकी राजकाल गणना भी दी है, जो इस प्रकार है "जं काले वीरजिणो णिस्सेयससंपयं समावण्णो । तक्काले अभिसित्तो पालयणामो अवंतिसुवो ॥१५॥ पालकरज्जं सद्धि इगिसयपणवण्णविजयवंसभवा । चालं मुरुवयवंसा तीसं वस्सा दु पुस्समित्तम्मि ॥९६।। वसुमित्त अग्गिमित्ता सट्ठी गंधव्वया वि सयमेक्कं । नरवाहणो य चालं तत्तो भत्थट्रणा जादा ॥९॥ भत्थट्ठणाण कालो बोण्णि सयाई हवंति वावाला । तत्तो गुत्ता ताणं रज्जो बोण्णियसयाणि इगितीसा ॥९॥ तत्तो कक्की जादो इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। . सत्तरिवरिसा पाऊ विगुणिय-इगवीस रज्जत्तो ॥१९॥" पाठी, २२० वर्ष में पांच ग्यारह अंगके धारी और फिर ११८ वर्ष में सुभद्र, जयभद्र, यशोबाह और लोहार्य ये चार आचाराङ्गधारी हुए। उत्तरपुराणके छिहत्तरवें अध्यायमें भी यही आचार्य परम्परा दी है । विशेषता केवल इतनी है कि प्रथम श्रुतकेवलीका नाम नन्दि दिया है तथा आचाराङ्गके धारियोंमें यशोबाहुके स्थानमें भद्रबाहु नाम है जैसा कि आदिपुराणमें भी है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें भी यह आचार्यपरम्परा इसी प्रकार पाई जाती है। ____ इस प्रकार त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें आचार्य यतिवृषभने भगवान महावीरसे लेकर लोहाचार्य तककी आचार्यपरम्परा और उसकी कालगणनाका जिस क्रमसे उल्लेख किया है उत्तरकालीन साहित्यमें वह उसी क्रमसे उपलब्ध होती है। उसके अनुसार भगवान वीरके बाद ६८३ वर्षतक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति सिद्ध होती है। यह तो हुए साहित्यिक उल्लेख, अब शिलालेख और पट्टावलियोंपर भी एक दृष्टि डाल जाना उचित है। इस समय नन्दिसंघ-बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छकी प्राकृत पट्टावली, सेनगणकी पट्टावली और काष्ठासंघकी पट्टावली हमारे सामने हैं। उनमें भी उक्त क्रम ही पाया जाता है। केवल इतना अन्तर है कि तीनों पट्टावलियोंमें नन्दिकी जगह विष्णु नाम मिलता है, तथा नन्दिसंघ और काष्ठासंघकी पट्टावलीमें यशोबाहुके स्थानमें भद्रबाहु नाम मिलता है । सेनगणकी पट्टावलीमें दसपूर्वियोंके नौ ही नाम दिये हैं-सिद्धार्थ और नागसेनका नाम छूट गया है, तथा विशाखाचार्यके स्थानमें व्रतधर लिखा है। काष्ठासंघकी पट्टावलीमें दसपूर्वियोंके नामोंमें बुद्धिल नाम नहीं है, दस ही नाम हैं। मालूम होता है लेखकों आदिकी गल्तीसे ये नाम छूट गये हैं। काष्ठासंघकी पट्टावलीमें तो कालगणना दी ही नहीं गई है । सेनगणकी पट्टावलीमे तीन केवलियोंका काल ६२ वर्ष, पांच श्रुतकेवलियों का १०० वर्ष, दसपूर्वियोंका १८० वर्ष, ग्यारह अंगके धारियोंका २२२ वर्ष, और आचारांगके धारियोंका ११८ वर्ष लिखा है। इस कालगणनामें दसपूर्वियोंके समयमें जो ३ वर्षकी कमी की है, उसमें से दो वर्ष तो ग्यारह अंगके धारियोंके कालमें बढ़ाकर पूरे किये हैं शेष एक वर्षकी कमी रह जाती है। नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलीमे जो कालगणना दी गई है, वह उपर्युक्त सभी कालगणनामोंसे कई दृष्टिसे विशिष्ट है। प्रथम तो उसमें प्रत्येक आचार्यका पृथक् पृथक् काल बतलाया है। दूसरे ५ एकादशाङ्गधारियों और ४ आचाराङ्गधारियोंका काल २२० वर्ष बतलाकर भगवान महावीरसे लोहाचार्य तकका काल ५६५ वर्ष ही बतलाया है और शेष एक सौ अट्ठारह वर्षमें अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन और भूतबलि प्राचार्योंको गिनाया है। अर्थात् पट्टावलीकार भी गणना तो ६८३ वर्षकी परम्पराको ही मानकर करते हैं किन्तु वे ६८३ वर्ष भूतबलि आचार्य तक पूर्ण करते हैं। इस प्रकार इस पट्टावलीकी कालगणनामें अन्य गणनाओंसे ११८ वर्षका अन्तर है, जो विचारणीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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