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________________ गा० २१] पेज्जदोसेसु बारस अणियोगद्दाराणि ३६१ णवरि, मणुस्सअपजत्तएसु णाणेगजीवं पेजदोसे अस्सिऊण अहभंगा। तं जहा, सिया पेजं, सिया णोपेजं, सिया पेजाणि, सिया णोपेजाणि, सिया पेजं च णोपेजं च, सिया पेजं च णोपेजाणि च, सिया पेजाणि च णोपेजं च, सिया पेज्जाणि च णोपेज्जाणि च । 8 ३७७. एवं दोसस्स वि अह भंगा वत्तव्वा । णाणाजीवप्पणाए कधमेकजीवभंगुप्पत्ती? ण, एगजीवेण विणा णाणाजीवाणुववत्तीदो। एवं वेउब्धियमिस्स आहार० आहारमिस्स०अवगदवेद-उवसमसम्माइडि-सासणसम्माइटि-सम्मामिच्छाइट्ठीसुअट्ठभंगा वत्तव्वा । सुहुमसांपराइयसंजदेसु सिया पेजं सिया पेजाणि ति । एत्थ णिरयदेवगदीसु नाना जीवोंकी अपेक्षा पेज्ज और दोषका अस्तित्व कहना चाहिये । सान्तरमार्गणाओंमेंसे मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकोंमें इतनी विशेषता है कि मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकोंमें नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा पेज्ज और नोपेज्जका आश्रय लेकर आठ भंग होते हैं। वे इसप्रकार हैंकभी एक लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यकी अपेक्षा एक पेज्जभाव होता है । कभी एक लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यकी अपेक्षा एक नोपेज्जभाव होता है । कभी अनेक लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों की अपेक्षा अनेक पेज्जभाव होते हैं। कभी अनेक लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंकी अपेक्षा अनेक नोपेज्ज भाव होते हैं। कभी पेज्ज और नोपेज्ज धर्मसे युक्त एक एक ही लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य पाया जाता है, इसलिये एक साथ एक पेज्जभाव और एक नोपेज्जभाव होता है। कभी पेज्ज धर्मसे युक्त एक और नोपेज्ज धर्मसे युक्त अनेक लब्धपर्यायप्तक मनुष्य पाये जाते हैं। इसलिये एक पेज्जभाव और अनेक नोपेज्जभाव होते हैं। कभी अनेक पेज्जधर्मसे युक्त और एक नोपेज्ज धर्मसे युक्त लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य पाया जाता है, अतः अनेक पेज्जभाव और एक नोपेज्जभाव होता है। कभी पेज्जधर्मसे युक्त अनेक और नोपेज्जधर्मसे युक्त अनेक लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य पाये जाते हैं, अतः अनेक पेज्जभाव और अनेक नोपेज्जभाव होते हैं। ६३७७. इस प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के प्रति दोषके भी आठ भंग कहना चाहिये । शंका-भंगविचयमें नाना जीवोंकी प्रधानतासे कथन करने पर एक जीवकी अपेक्षा भंग कैसे बन सकते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि एक जीवके बिना नाना जीव नहीं बन सकते हैं, इसलिये भंगविचयमें नाना जीवोंकी प्रधानताके रहने पर भी एक जीवकी अपेक्षा भी भंग बन जाते हैं। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेद, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंमेंसे प्रत्येकमें आठ आठ भंग कहना चाहिये। परन्तु सूक्ष्मसांपरायिक संयमी जीवोंमें कदाचित् एक पेज्ज है और कदाचित् अनेक पेज्ज हैं इसप्रकार दो भंगोंका ही कथन करना चाहिये। शंका-नरकगति और देवगतिमें यथाक्रम पेज्ज और दोष कदाचित् होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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