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________________ ३६२ .. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेजदोसविहत्ती १ जहाकम पेज्जदोसं सिया अत्थि त्ति वत्तव्वं, उवजोगसुत्तस्साहिप्पारण तत्थेगकसायोवजुत्ताणं पि जीवाणं कदाचिक्कभावेण संभवोवलंभादो त्ति णासंकणिजं; उच्चारणाहिप्पाएण चदुसु वि गदीसु चदुकसाओवजुत्ताणं णियमा अस्थित्तदंसणादो । एवं णाणजीवेहि भंगविचओ समत्तो। ३७८. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अर्थात् नरकगतिमें पेज्ज और देवगतिमें दोष कभी कभी पाया जाता है सर्वदा नहीं, ऐसा कथन करना चाहिये, क्योंकि उपयोग अधिकारगतसूत्रके अभिप्रायानुसार नरकगति और देवगतिमें एक कषायसे उपयुक्त जीवोंका भी कभी कभी संभव पाया जाता है। समाधान-ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उच्चारणाचार्य के अभिप्रायानुसार चारों ही गतियों में चारों कषायोंसे उपयुक्त जीवोंका अस्तित्व नियमसे देखा जाता है, इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। विशेषार्थ-जिन मार्गणाओंसे युक्त जीव कभी होते और कभी नहीं भी होते उन्हें सान्तर मार्गणा कहा है। आगममें ऐसी मार्गणाएं आठ गिनाई हैं। कषायसहित अपगतवेद भी एक ऐसा स्थान है जो सर्वदा नहीं पाया जाता । इसप्रकार ये उपर्युक्त स्थान सान्तर होनेसे इनमें कभी एक और कभी अनेक जीव पाये जाते हैं। इसलिये इनके पेज्ज और दोषके साथ प्रत्येक और संयोगी भंग उत्पन्न करने पर आठ भंग होते हैं जो ऊपर गिनाये हैं । पर सूक्ष्मसंपरायमें पेज्जभाव ही होता है, इसलिये वहां एक जीवकी अपेक्षा पेज्जभाव और नाना जीवोंकी अपेक्षा पेज्जभाव ये दो ही भंग होंगे। तथा इन मार्गणास्थानोंको छोड़ कर जिनमें कषाय संभव है ऐसी शेष सभी मार्गणाओंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा पेज्जभाव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दोषभाव ये दो भंग ही होंगे। यद्यपि यहां यह शंका उत्पन्न होती है कि आगे उपयोगाधिकार में चूर्णिसूत्रकारने यह बताया है कि देव और नारकी कदाचित् एक कषायसे और कदाचित् दो, तीन और चार कषायोंसे उपयुक्त होते हैं इसलिये नारकियोंमें पेज्ज और देवोंमें दोष कभी होता और कभी नहीं होता, इस दृष्टिसे यहां भंगोंका संग्रह क्यों नहीं किया ? पर इस विषयमें उच्चारणाका अभिप्राय चूर्णिसूत्रकारसे मिलता हुआ नहीं है। उच्चारणाका यह अभिप्राय है कि चारों गतिके जीव सर्वदा चारों कषायोंसे उपयुक्त होते हैं। और यहां उच्चारणाके अभिप्रायानुसार भंगविचयका कथन किया जा रहा है, इसलिये यहां चूर्णिसूत्रके अभिप्रायका संग्रह नहीं किया । ६३७८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश (१) "तदो का च गदी एगसमएण एगकसाओवजुत्ता वा दुकसाओवजुत्ता वा तिकसायोवजुत्ता वा चदुकसायोवजुत्ता वा त्ति एवं पुच्छासुत्तं । तदो णिदरिसणं णिरयदेवगदीणमेदे वियप्पा अस्थि । सेसाओ गदीओ णियमा चदुकसायोवजुत्ताओ।"-कसाय० उपयोग० प्रे० १०५९१६ । (२) चदुकसाएसु कसाओव -अ०, आ० । (३) अत्थित्ति-अ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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