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________________ ३६० tream सहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोस विहत्ती १ जहणेण एगसमओ | एवं णेदव्वं जाव अणाहारएत्ति । णवरि, पेजरस एयसमयसंभवो समयाविरोहेणाणुगंतव्वोः सव्वत्थ तदसंभवादो । पंचमण - पंचवचि - वेउब्वियमिस्स ० आहार० आहारमिस्स ० कम्मइय० सुहुमसां पराइय- सासण- सम्मामिच्छादिट्ठीसु णत्थि अंतरं । कुदो ! पेज दोसाणं जहणंतरकालादो वि एदेसिं वृत्तपदकालाणं थोवत्तुवलंभादो | ण च पदंतरगमणमेत्थ संभवइ; एकम्मि पदे णिरुद्धे पदंतरगमणविरोहादो । एवमंतरं समत्तं । ९ ३७६. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पेजं दोसो च णियमा अत्थि । सुगममेदं । एवं जाव अणाहार एत्ति वत्तव्वं । दोषका अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट दोनोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त होता है । इतनी विशेषता है कि पेज्जका जघन्य अन्तर एक समय भी होता है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पेज्जका जघन्य अन्तर जो एक समय संभव है वह जिसप्रकार आगममें विरोध न आवे उसप्रकार लगा लेना चाहिये, क्योंकि सब स्थानोंमें पेज्जका जघन्य अन्तर एक समय नहीं पाया जाता है । विशेषार्थ - पेज्ज या दोषका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । पेज्जके बाद दोषका और दोषके बाद पेज्जका ही उदय होता है, अतः पेज्ज और दोषका अन्तरकाल भी अन्तर्मुहूर्त ही होगा । परन्तु पेज्जका जघन्य अन्तर एक समय भी हो सकता है । यथा - कोई सूक्ष्म सांप रायगुणस्थानवर्ती जीव उपशान्तकषाय हुआ और वहां एक समय रह कर मरा और पेज्जके उदयसे युक्त देव हुआ । इसप्रकार पेज्जका जघन्य अन्तर एक समय हो जाता है । पेज्जका यह जघन्य अन्तर सर्वत्र संभव नहीं है । पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहाकमिश्रकाय योगी, कार्मणकाययोगी, सूक्ष्मसांपरायसंयमी, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में पेज्ज और दोषका अन्तर नहीं पाया जाता है, क्योंकि पेज्ज और दोषके जघन्य अन्तरकालसे भी इन ऊपर कहे गये स्थानोंका काल अल्प पाया जाता है। यदि कहा जाय कि यहां पर पदान्तरगमन संभव है सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक पदमें रुके रहने पर पदान्तरगमन के माननेमें विरोध आता है । इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ । ९ ३७६. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा पेज्ज भी सर्वदा नियमसे है और दोष भी सर्वदा नियमसे है, क्योंकि पेज्ज और दोषके धारक जीव सर्वदा पाये जाते हैं । इसप्रकार यह कथन सुगम है । सान्तर मार्गणाओंको और जिनमें पेज्ज और दोष पाये नहीं जाते हैं उन मार्गणाओंको छोड़कर अनाहारक मार्गणा तक शेष सभी मार्गणाओं में ओघके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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