SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 536
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गो० २१ ] पेग्जदोसेसु बारस अणियोगद्दाराणि ३८९ वत्तव्वं । णवरि कोधकसाइ-माणकसाइ-मायाकसाइ-लोभकसाईसु जहण्णुक्करसेण अंतोमुहुत्तं। कुदो ? अंतोमुहुत्तेण विणा कसायंतरसंकंतीए अभावादो। कम्मइयकायजोगीसु जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया । कुदो १ तिसु चेव समएसु कम्मइयकायजोगुवलंभादो। एवमणाहारीसु । एवं कालो समत्तो । * एवं सव्वाणियोगद्दाराणि अणुगंतव्वाणि । ६ ३७३. जहा सामित्त-कालाणियोगद्दाराणि परूविदाणि तहा सेसाणि वि जाणिऊण परूवेयव्याणि । ६ ३७४. चुण्णिसुत्तपरूविदसामित्त-कालाणियोगद्दाराणि परूविय संपहि उच्चारणाइरियपरूविदअणियोगद्दाराणं परूवणं कस्सामो । ३७५. अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पेजदोसाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । णवरि, पेजस्स है, अतः ऊपर पेज्ज और दोषका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। गतिमार्गणामें नरकगतिगत नारकियोंमें पेज्ज और दोषके कालका जिसप्रकार वर्णन किया है उसीप्रकार शेष मार्गणाओंमें करना चाहिये । किन्तु कषायमार्गणा, कार्मणकाययोग और अनाहारक जीवोंमें इतनी विशेषता है कि कषायमार्गणाकी अपेक्षा क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें पेज्ज और दोषका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त हुए बिना एक कषाय दूसरी कषायमें संक्रान्त नहीं होती है अर्थात् अन्तर्मुहूर्तके बाद ही कषायमें परिवर्तन होता है। योग मार्गणाकी अपेक्षा कार्मण काययोगियोंमें पेज्ज और दोषका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है, क्योंकि कार्मणकाययोग उत्कृष्ट रूपसे तीन समय तक ही पाया जाता है । कार्मणकाययोगियोंमें पेज्ज और दोषके कालका जिसप्रकार वर्णन किया है. उसीप्रकार अनाहारकोंके भी पेज्ज और दोषका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय समझना चाहिये। इसप्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ। * इसीप्रकार सब अनुयोगद्वारोंको समझ लेना चाहिये । ६३७३. ऊपर जिसप्रकार स्वामित्व अनुयोगद्वार और कालानुयोगद्वारका कथन कर आये हैं उसीप्रकार शेष अनुयोगद्वारोंको भी समझकर उनका कथन करना चाहिये।। ३७४. इसप्रकार चूर्णिसूत्रके द्वारा कहे गये स्वामित्व और कालानुयोगद्वारीका कथन करके अब उच्चारणाचार्य के द्वारा कहे गये शेष अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं ३७५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा पेज और दोषका अन्तरकाल कितना है ? पेज और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy