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________________ ३६८ tream सहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ ९ ३३८. लोहो पेजं लोभेन रक्षितद्रव्यस्य सुखेन जीवनोपलम्भात् । इत्थि - पुरिसवेया पे सेसणोकसाया दोसो; तहा लोए संववहारदंसणादो । * उजुसुदस्स कोहो दोसो, माणो णोदोसो णोपेजं, माया णो दोसो णोपेजं, लोहो पेज्जं । ९ ३३६. कोहो दोसो त्ति णव्वदेः सयलाणत्थउत्तादो । लोहो पेजं चि एदं पि सुगमं तत्तो समुष्पजमार्णतोसुवलंभादो | पंपावसेण कुभोयणं भुंजंतस्स मलिणपट्टत्थोरवसणस्स कत्तो आहलादो ? ण; तहेव तस्स संतोसुवलंभादो । किंतु माण- मायाओ णोदोसो णोपे त्ति एदं ण णव्वदे पेज- दोसवजियस्स कसायस्स अणुवलंभादोति । $३४०. एत्थ परिहारो उच्चदे, माण- माया णोदोसो; अंगसंतावाईणमकारणत्तादो । तत्तो समुत्पजमाणअंगसंतावादओ दीसंति त्ति ण पच्चवहादु जुत्तं; माणणिबंधणकोहादो निन्दासे हमेशा दुःख ही उत्पन्न होता है । ३३८. लोभ पेज्ज है, क्योंकि लोभके द्वारा बचाये हुए द्रव्यसे जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ पाया जाता है । खीवेद और पुरुषवेद पेज हैं, और शेष नोकषाय दोष हैं क्योंकि लोकमें इनके बारेमें इसीप्रकारका व्यवहार देखा जाता है । * ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान न दोष हैं और न पेज है, माया न दोष है और न पेज है तथा लोभ पेज है । ९३३९. शंका - क्रोध दोष है यह तो समझ में आता है, क्योंकि वह समस्त अनर्थोंका कारण है। लोभ पेज्ज है यह भी सरल है, क्योंकि लोभसे आनन्द उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । यदि कहा जाय कि तीव्र लालचके कारण जो कुभोजन करता है जिसके कपड़े मैले हैं अथवा जिसके पास पहनने के पूरेसे वस्त्र भी नहीं है उसे आनन्द कैसे हो सकता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि लोभी पुरुषको ऐसी ही बातोंसे संतोष प्राप्त होता है, इसलिये लोभ पेज्ज है, यह कहना ठीक है । किन्तु मान और माया न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कहना नहीं बनता, क्योंकि पेज्ज और दोषसे भिन्न कषाय नहीं पाई जाती है ? $३४०. समाधान-यहां उक्त शंकाका समाधान करते हैं-ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा मान और माया दोष नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों अंगसंताप आदि के कारण नहीं हैं। यदि कहा जाय कि मान और मायासे अंगसंताप आदि उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं सो ऐसा कहना भी (१) "उज्जुसुयमयं कोहो दोसो सेसाणमयमणेगंतो । रागोत्ति व दोसो त्ति व परिणामवसेण अवसेओ ।। संपयगाहित्ति नओ न उवजोगदुगमेगकालम्मि । अप्पीईपीइमे त्तोवओगओ तं तहा दिसइ ॥ माणो रागोत्ति मओ साहंकारोवओगकालम्मि । सो चेव होइ दोसो परगुणदोसोवओगम्मि || माया लोभो चेवं परोवघाओवओगओ दोसो | मुच्छोवओगकाले रागोऽभिस्संगलिंगो त्ति ।। " - विशेषा० गा० ३५३८४१ । (२)—णदोसुव-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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