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________________ गा० २१ ] कसाएसु पेज्जदोसविभागो रइ-इत्थि-पुरिस-णqसयवेया पेज लोहो व्व रायकारणत्तादो । कथमेदमणुद्दिष्टं णव्वदे ? गुरूवएसादो, देसामासियचुण्णिसुत्तमवलंबिय पयट्टादो। * ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो पेजं । $३३७. क्रोध-मानौ दोष इति न्याय्यं तत्र लोके दोषव्यवहारदर्शनात् , न माया तत्र तद्वयवहारानुपलम्भादिति; न; मायायामपि अप्रत्ययहेतुत्व-लोकगर्हितत्वयोरुपलम्भात् । न च लोकनिन्दितं प्रियं भवति; सर्वदा निन्दातो दुःखोत्पत्तेः । भके कारण हैं। तथा हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद पेज्जरूप हैं, क्योंकि ये सब लोभके समान रागके कारण हैं। शंका-अरति आदि दोषरूप हैं और हास्य आदि पेज्जरूप हैं यह सब तो चूर्णिसूत्रकारने नहीं कहा है, इसलिये ये अमुकरूप हैं यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। अथवा चूर्णिसूत्र देशामर्षक है, इसलिये उसका अवलंबन लेकर उक्त कथन किया गया है। विशेषार्थ-हास्य, रति और तीनों वेद पेज्ज हैं तथा अरति, शोक, भय और जुगुप्सा दोष हैं यह व्यवस्था चूर्णिसूत्रकारने अपने चूर्णिसूत्रमें नहीं दी है। उन्होंने केवल क्रोध और मानको दोष तथा माया और लोभको पेज्ज कहा है, अतः हास्यादि पेज्जरूप हैं और अरति आदि दोषरूप हैं यह चूर्णिसूत्रसे तो नहीं जाना जाता है फिर इन्हें पेज्ज और दोषरूप जो कहा गया है वह युक्त नहीं है यह उपर्युक्त शंकाका सार है। इसका जो समाधान किया गया है वह निम्नप्रकार है-यद्यपि चूर्णिसूत्रकारने अपने चूर्णिसूत्रमें हास्यादिको पेज्ज और अरति आदिको दोष नहीं कहा है यह ठीक है फिर भी क्रोध और मानको दोष तथा माया और लोभको पेज्ज कहने वाला उपर्युक्त सूत्र देशामर्षक है इसलिये देशामर्षकभावसे 'हास्यादि पेज्ज हैं और अरति आदि दोष हैं' इस कथनका भी ग्रहण हो जाता है । देशामर्षकका अर्थ पृष्ठ १२ के विशेषार्थमें खोल आये है, इसलिये वहांसे जान लेना चाहिये। * व्यवहार नयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ पेज्ज है। ६३३७. शंका-क्रोध और मान दोष हैं यह कहना तो युक्त है, क्योंकि लोकमें क्रोध और मानमें दोषका व्यवहार देखा जाता है। परन्तु मायाको दोष कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मायामें दोषका व्यवहार नहीं देखा जाता है। समाधान-नहीं, क्योंकि मायामें भी अविश्वासका कारणपना और लोकनिन्दितपना देखा जाता है । और जो वस्तु लोकनिन्दित होती है वह प्रिय नहीं हो सकती है, क्योंकि (२) "मायं पि दोसमिच्छइ ववहारो जं परोवघायाय । नाओवादाणे च्चिय मुच्छा लोभो त्ति तो रागो॥"-विशेषा० गा० ३५३७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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