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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? कम्पच्छायाभङ्गान्ध्य-बाधिर्य-मो (मौ) क्य-स्मृतिविलोपादिहेतुत्वात्, पितृमात्रादिप्राणिमारणहेतुत्वात् , सकलानर्थनिबन्धनत्वात् । माणो दोसो क्रोधपृष्ठभावित्वात् , क्रोधोक्ताशेषदोषनिबन्धनत्वात् । माया पेजं प्रेयोवस्त्वालम्बनत्वात् , स्वनिष्पत्त्युत्तरकाले मनसः सन्तोषोत्पादकत्वात् । लोहो पेजं आल्हादनहेतुत्वात् । ६३३६.क्रोध-मान-माया-लोभाः दोषः आस्रवत्वादिति चेत् सत्यमेतत् ; किन्त्वत्र आल्हादनानाल्हादनहेतुमात्रं विवक्षितं तेन नायं दोषः। प्रेयसि प्रविष्टदोषत्वाद्वा मायालोभौ प्रेयान्सौ । अरइ-सोय-भय-दुगुंछाओ दोसो; कोहोव्व असुहकारणत्तादो । हस्सजाते हैं, मुखसे शब्द नहीं निकलता है, स्मृति लुप्त हो जाती है आदि । तथा गुस्से में आकर मनुष्य अपने पिता और माता आदि प्राणियोंको मार डालता है और गुस्सा सकल अनर्थोंका कारण है। ____ मान दोष है, क्योंकि वह क्रोधके अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोधके विषयमें कहे गये समस्त दोषोंका कारण है। माया पेज्ज है, क्योंकि उसका आलम्बन प्रिय वस्तु है, अर्थात् अपने लिये प्रिय वस्तुकी प्राप्ति आदिके लिये ही माया की जाती है। तथा वह अपनी निष्पत्तिके अनन्तर कालमें मनमें सन्तोषको उत्पन्न करती है, अर्थात् मायाचारके सफल हो जाने पर मनुष्यको प्रसन्नता होती है। इसीप्रकार लोभ पेज्ज है, क्योंकि वह प्रसन्नताका कारण है। $ ३३६. शंका-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं, क्योंकि वे स्वयं आस्रवरूप हैं या आस्रवके कारण हैं ? समाधान-यह कहना ठीक है किन्तु यहां पर कौन कषाय आनन्दकी कारण है और कौन आनन्दकी कारण नहीं है इतनेमात्रकी विवक्षा है इसलिये यह कोई दोष नहीं है। अथवा प्रेममें दोषपना पाया ही जाता है, अतः माया और लोभ प्रेय अर्थात् पेज्ज हैं। विशेषार्थ-यद्यपि कषायोंके स्वरूपका विचार करनेसे चारों कषाय दोषरूप हैं, क्योंकि वे संसारकी कारण हैं। उनके रहते हुए जीव कर्मबन्धसे मुक्त होकर स्वतन्त्र नहीं हो सकता। पर यहां इस दृष्टिकोणसे विचार नहीं किया गया है। यहां तो केवल इस बातका विचार किया जा रहा है कि उक्त चार कषायोंमेंसे किन कषायोंके होने पर जीवको आनन्दका अनुभव होता है और किन कषायोंके होने पर जीवको दुःखका अनुभव होता है। इन चारों कषायोंमेंसे क्रोध और मानको इसलिये दोषरूप बतलाया है कि उनके होने पर जीव अपने विवेकको खो बैठता है और उनसे अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं। तथा माया और लोभको इसलिये पेज्जरूप बतलाया है कि उनके होनेका मुख्य कारण प्रिय वस्तु है या उनके सफल हो जाने पर आनन्द होता है। अरति, शोक, भय और जुगुप्सा दोषरूप हैं, क्योंकि ये सब क्रोधके समान अशु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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