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________________ गा० २१ ] कसाएसु पेज्जदोसविभागो मायाणिबंधणलोहादो च समुप्पजमाणाणं तेसिमुवलंभादो। ण च ववहियं कारणं; अणवत्थावत्तीदो । ण च बे वि पेजं; तत्तो समुप्पजमाणआहलादाणुवलंभादो । तम्हा माण-माया बे विणोदोसो णोपेजं ति जुञ्जदे । ___ * संदस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो दोसो। कोहो माणो माया णोपेज़, लोहो सिया पेजं । $ ३४१. कोह-माण-माया लोहा चत्तारि वि दोसो; अष्टकम्मासवत्तादो, इहपरलोयविसेसदोसकारणत्तादो । अत्रोपयोगी श्लोकः क्रोधात्प्रीतिविनाशं मानाद्विनयोपघातमामोति । शाठ्यात्प्रत्ययहानि सर्वगुणविनाशको लोभः ।।१४६॥" ६३४२. कोहो माणो माया णोपेजं; एदेहितो जीवस्स संतोस-परमाणंदाणमभावादो। लोहो सिया पेजं; तिरयणसाहणविसयलोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्तिदंसणादो । युक्त नहीं है, क्योंकि वहां जो अंगसंताप आदि देखे जाते हैं, वे मान और मायासे न होकर मानसे होनेवाले क्रोधसे और मायासे होनेवाले लोभसे ही सीधे उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं। अतः व्यवधानयुक्त होनेसे वे कारण नहीं हो सकते हैं, क्योंकि व्यवहितको कारण माननेसे अनवस्था दोष प्राप्त होता है । उसीप्रकार मान और माया ये दोनों पेज्ज भी नहीं हैं, क्योंकि उनसे आनन्दकी उत्पत्ति होती हुई नहीं पाई जाती है। इसलिये मान और माया ये दोनों न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कथन बन जाता है। * शब्दनयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ दोष है । क्रोध, मान और माया पेज नहीं हैं किन्तु लोभ कथंचित् पेज है । ६३४१. क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं, क्योंकि ये आठों कर्मों के आश्रवके कारण हैं तथा इस लोक और परलोकमें विशेष दोषके कारण हैं। यहां उपयोगी श्लोक देते हैं "मनुष्य क्रोधसे प्रीतिका नाश करता है, मानसे विनयका घात करता है और शठतासे विश्वास खो बैठता है। तथा लोभ समस्त गुणोंका नाश करता है ॥१४६॥" ६३४२. क्रोध, मान, और माया ये तीनों पेज्ज नहीं हैं, क्योंकि इनसे जीवको संतोष और परमानन्दकी प्राप्ति नहीं होती है। लोभ कथंचित् पेज्ज है, क्योंकि रत्नत्रयके (१)-य सका-स० । (२) “सद्दाइमयं माणे मायाएऽवि य गुणोवगाराय । उवओगो लोभोच्चि य जओ स तत्थेव अवरुद्धो ॥ सेसंसा कोहोऽवि य परोवघायमइयत्ति तो दोसो। तल्लक्खणो य लोभो अह मुच्छा केवलो रागो । मुच्छाणुरंजणं वा रागो संदूसणं ति तो दोसो। सद्दस्स व भयणेयं इयरे एक्केक्क ठियपक्खा ॥"-विशेषा० गा० ३५४२-४४ । (३) “कोहो पाइं पणासेइ माणो विणयणासणो। माया मित्ताणि नासेइ लोभो सव्वविणासणो॥"-दशवै०८।३८ । “क्रोधात्प्रीतिविनाशं मानाद्विनयोपघातमाप्नोति । शाठपात् प्रत्ययहानिं सर्वगुणविनाशनं लोभात ॥"-प्रनम० श्लो० २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only wwow.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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