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जयधवलासहित कषायप्राभृत
महावीरकी आयु ७२ वर्ष है और दूसरे उपदेशके अनुसार ७१ वर्ष ३ माह २५ दिन बतलाई गई है । जब जयधवलाकारसे पूछा जाता है कि इन दोनोंमें कौन ठीक है तो वे कहते हैं
" दोसु वि उवदेसेस को एत्थ समंजसो ? एत्थ ण बाहइ जीन्भमेलाइरियवच्छओ अलद्धोवदेसत्तादा, दोण्हमेक्कस्स वाहावलम्भादेा । किंतु दासु एक्केण होदव्वं, तं च उवदेसं लहिय वत्तव्यं ।” कसायपा० भा० १८१ ।
'इन दोनों उपदेशों में कौन ठीक है ? इस विषय में एलाचार्यके शिष्यको अपनी जबान नहीं चलाना चाहिये, क्योंकि दोनोंमेंसे एकमें भी कोई बाधा नहीं पाई जाती है, किन्तु होना तो दोनों में से एक ही चाहिये और वह कौन है यह बात उपदेश प्राप्त करके ही कहना चाहिये ।'
भला बताइये तो सही जो आचार्य इस प्रकारके उपदेशोंके विरुद्ध भी तबतक कुछ नहीं कहना चाहते जब तक उन्हें किसी एक उपदेशकी सत्यता के बारेमें परम्परागत उपदेश प्राप्त न हो, उनके बारेमें यह कल्पना करना भी कि वे आगमिक विषयों में मनमानी कर सकते हैं, पाप है । ऐसे निष्पक्षपात स्फुटबुद्धि आचार्योंके निर्णय कितने प्रामाणिक होते हैं यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है, अतः जयधवलाकी व्याख्यान शैलीकी विवेचनपरता, स्पष्टता और प्रामाकिता आदिको दृष्टिमें रखकर यही कहना पड़ता है- "टीका श्रीवीरसेनीया शेषाः पद्धतिपंजिकाः ।” 'यदि कोई टीका है तो वह श्री वीरसेनस्वामी महाराजकी धवला और जयधवला है, शेष या तो पद्धति कही जानेके योग्य हैं या पंजिका ।"
जयधवला में निर्दिष्ट ग्रन्थ और ग्रन्थकार
जयधवलामें कसायपाहुड और उसके वृत्तिग्रन्थों तथा उनके रचयिताओंके जो नाम आये हैं उनका निर्देश पहले यथास्थान कर आये हैं तथा आगे भी समय निर्णय में करेंगे। उनके सिवा जिन ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका उल्लेख आया है उनका परिचय यहां कराया जाता है।
इस मुद्रित भाग प्रारम्भ में मङ्गलचर्चा में यह कहा गया है कि गौतम स्वामीने चौबीस अनुयोग द्वारके आदिमें मङ्गल किया है । तथा जयधवला के अन्त में पश्चिमस्कन्धमें कहा गया है कि महाकर्म यह अधिकार महाकर्म प्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोंमें प्रतिबद्ध है । इससे स्पष्ट प्रकृति और है कि महाकर्मप्रकृति प्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वार थे । अतः ये दोनों एकही प्रन्थके चौवीस नाम हैं। मूल नाम महाकर्मप्रकृतिप्राभृत है और उसमें चौबीस अनुयोगद्वार होनेसे अनुयोग उसे चौबीस अनुयोगद्वार भी कह देते हैं । यह महाकर्मप्रकृति प्राभृत प्रायणीयपूर्वके
द्वार चयनलब्धि नामक पांचवें वस्तु अधिकारका चौथा प्राभृत है । इसीके ज्ञाता धरसेन स्वामी थे। जिनसे अध्ययन करके भूतबलि और पुष्पदन्तने षट्खण्डागमकी रचना की। चूँकि यह महाकर्मप्रकृति पूर्वका ही एक अंश है और अङ्ग तथा पूर्वोकी रचना गौतम गणधर ने की थी, अतः उसके कर्ता गौतम स्वामी थे । जैसा कि धवलाके निम्न अंशसे भी प्रकट है
"महाकम्पयडिपाहुडस्स कदिआदिचउवीस अणियोगावयवस्य आदीए गोदमसामिणा परूविदस्त ।” जयधवलाके पन्द्रहवें अधिकारमें एक स्थानपर लिखा है
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'एत्थ एदाश्रो भवपच्चइयानो एदाओ च परिणामपच्चइयाओ त्ति एसो अत्थविसेसो संतकम्म
संत कम्म
पाहुड
और
उसके खण्ड पाहुडे वित्थारेण भणिदो । एत्थ पुण गंथगउरवभएण ण भणिवो ।” प्रे० का० ८० ७४४१ ।
(१) १० ८ । (२) प्रे० का० प० ७५६८ । (३) ध० आ० प० ५१२ ।
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