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प्रस्तावना
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अर्थात् -"अमुक प्रकृतियाँ भवप्रत्यया हैं और अमुक प्रकृतियाँ परिणामप्रत्यया हैं यह विशेष संतकम्मपाहुड या सत्कर्मप्राभृत में विस्तारसे कहा है । किन्तु यहां ग्रन्थगौरव के भय से नहीं कहा ।"
यह सत्कर्मप्राभृत षट्खण्डागम का ही नाम है । उसपर इन्हीं ग्रन्थकार की धवला टीका है। यहां जयधवलाकारने संतकम्मपाहुड से अपनी उस धवला टीका का ही उल्लेख किया प्रतीत होता है । उसीमें उक्त अर्थविशेष का विस्तार से कथन कर चुकनेके कारण जयधवला में उसका कथन नहीं किया है । यह संतकम्मपाहुड धवला टीकाके साथ अमरावती से प्रकाशित हो रहा है। इसके छह खण्ड हैं जीवट्ठाण, खुदाबंध, बंधसामित्तविचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध । जयधवला में इनमें से बंधसामित्तविचय को छोड़कर शेष खण्डोंका अनेक जगह उल्लेख मिलता है । उनमें भी महाबंध का उल्लेख बहुतायत से पाया जाता है । यह महाबंध संतकम्मपाहुडसे अलग है। इसके रचयिता भी भगवान् भूतबलि ही हैं । अभी तक यह ग्रन्थ मूडबिद्रीके भण्डार में ही सुरक्षित था किन्तु अब मूडबिद्रीके भट्टारकजी तथा पंचोंकी सदाशयतासे उसकी प्रतिलिपि होकर बाहर आ गई है । आशा है निकट भविष्य में पाठक उसका भी स्वाध्याय करनेका सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे ।
एक स्थानमें कहा है कि देशावधि, परमावधि और सर्वावधिके लक्षण जैसे प्रकृति अनुयोगद्वार में कहे हैं वैसे ही यहां भी उनका कथन कर लेना चाहिये । यह प्रकृति अनुयोगद्वार वर्गणाखण्ड का ही एक अवान्तर अधिकार है।
चारित्रमहकी उपशामना नामक चैदहवें अधिकार में करणों का वर्णन करते हुए लिखा हैदसकरणि- “दसकरणीसंगहे पुण पयडिबंध संभवमेत्तमवेक्खिय वेदणीयस्स वीयरायगुणट्ठाणेसु वि बंधणाकरणसंग्रह - मोवट्टणाकरणं च दो वि भणिदाणि ।” प्रे० पृ० ६६०० |
अर्थात् - " दसकरणीसंग्रह नामक ग्रन्थ में प्रकृतिबन्ध के सम्भवमात्र की अपेक्षा करके वीतरागगुणस्थानों में भी बन्धनकरण और अपकर्षणकरण दोनों हो कहे हैं । "
इस दसकरणी संग्रह नामक ग्रन्थ का पता अभी तक हमें नहीं चल सका है । इस ग्रन्थ में, जैसा कि इसके नामसे स्पष्ट है. दस करणों का संग्रह है । ऐसा मालूम होता है कि करणोंके स्वरूप का इसमें विस्तारसे विचार किया गया होगा । दक्षिणके भण्डारोंमें इसकी खोज होने की आवश्यकता है ।
प्रकृंत भागमें नयों की चर्चा करते हुए तवार्थसूत्रका उल्लेख किया है और उसका तत्त्वार्थसूत्र एक सूत्र इसप्रकार उद्धृत किया है - " प्रमाणनयैर्वस्त्बधिगमः ।"
आजकल तत्त्वार्थ सूत्र के जितने सूत्रपाठ मिलते हैं सबमें “प्रमाणनयैरधिगमः " पाठ ही पाया जाता है । यहाँ तक कि पूज्यपाद, भट्टाकलंक, विद्यानन्द आदि टीकाकारांने भी यही पाठ अपनाया है । किन्तु धवला और जयधवला दोनों टीकाओं में श्री वीरसेनस्वामीने उक्त पाठ को ही स्थान दिया है । इस अन्तर का कारण अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है ।
(१) धवला १ भाग की प्रस्ता० पृ० ७० । ( २ ) प्रे० का० पृ० ५८५७, ६३४६ तथा मुद्रित १ भा० पृ० ३८६ । (३) प्रे० का० पृ० १८५८ । (४) प्रे० पृ० १८७३, २५२४ । (५) मुद्रित १ भा० पृ० १४ । (६) प्रे० का० पृ० ११५ १३९४, १४०२, १६१३, २०८९, २३७५, २४७४ । (७) मुद्रित १ भा० पृ० १७ । (८) पृ० २०९ । (ह) " प्रमाणनयैर्वस्त्वधिगमः इत्यनेन सूत्रेणापि नेवं व्याख्यानं विघटते ।" ध० आ० प० ५४२ ।
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