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________________ प्रस्तावना ३३ अर्थात् -"अमुक प्रकृतियाँ भवप्रत्यया हैं और अमुक प्रकृतियाँ परिणामप्रत्यया हैं यह विशेष संतकम्मपाहुड या सत्कर्मप्राभृत में विस्तारसे कहा है । किन्तु यहां ग्रन्थगौरव के भय से नहीं कहा ।" यह सत्कर्मप्राभृत षट्खण्डागम का ही नाम है । उसपर इन्हीं ग्रन्थकार की धवला टीका है। यहां जयधवलाकारने संतकम्मपाहुड से अपनी उस धवला टीका का ही उल्लेख किया प्रतीत होता है । उसीमें उक्त अर्थविशेष का विस्तार से कथन कर चुकनेके कारण जयधवला में उसका कथन नहीं किया है । यह संतकम्मपाहुड धवला टीकाके साथ अमरावती से प्रकाशित हो रहा है। इसके छह खण्ड हैं जीवट्ठाण, खुदाबंध, बंधसामित्तविचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध । जयधवला में इनमें से बंधसामित्तविचय को छोड़कर शेष खण्डोंका अनेक जगह उल्लेख मिलता है । उनमें भी महाबंध का उल्लेख बहुतायत से पाया जाता है । यह महाबंध संतकम्मपाहुडसे अलग है। इसके रचयिता भी भगवान् भूतबलि ही हैं । अभी तक यह ग्रन्थ मूडबिद्रीके भण्डार में ही सुरक्षित था किन्तु अब मूडबिद्रीके भट्टारकजी तथा पंचोंकी सदाशयतासे उसकी प्रतिलिपि होकर बाहर आ गई है । आशा है निकट भविष्य में पाठक उसका भी स्वाध्याय करनेका सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे । एक स्थानमें कहा है कि देशावधि, परमावधि और सर्वावधिके लक्षण जैसे प्रकृति अनुयोगद्वार में कहे हैं वैसे ही यहां भी उनका कथन कर लेना चाहिये । यह प्रकृति अनुयोगद्वार वर्गणाखण्ड का ही एक अवान्तर अधिकार है। चारित्रमहकी उपशामना नामक चैदहवें अधिकार में करणों का वर्णन करते हुए लिखा हैदसकरणि- “दसकरणीसंगहे पुण पयडिबंध संभवमेत्तमवेक्खिय वेदणीयस्स वीयरायगुणट्ठाणेसु वि बंधणाकरणसंग्रह - मोवट्टणाकरणं च दो वि भणिदाणि ।” प्रे० पृ० ६६०० | अर्थात् - " दसकरणीसंग्रह नामक ग्रन्थ में प्रकृतिबन्ध के सम्भवमात्र की अपेक्षा करके वीतरागगुणस्थानों में भी बन्धनकरण और अपकर्षणकरण दोनों हो कहे हैं । " इस दसकरणी संग्रह नामक ग्रन्थ का पता अभी तक हमें नहीं चल सका है । इस ग्रन्थ में, जैसा कि इसके नामसे स्पष्ट है. दस करणों का संग्रह है । ऐसा मालूम होता है कि करणोंके स्वरूप का इसमें विस्तारसे विचार किया गया होगा । दक्षिणके भण्डारोंमें इसकी खोज होने की आवश्यकता है । प्रकृंत भागमें नयों की चर्चा करते हुए तवार्थसूत्रका उल्लेख किया है और उसका तत्त्वार्थसूत्र एक सूत्र इसप्रकार उद्धृत किया है - " प्रमाणनयैर्वस्त्बधिगमः ।" आजकल तत्त्वार्थ सूत्र के जितने सूत्रपाठ मिलते हैं सबमें “प्रमाणनयैरधिगमः " पाठ ही पाया जाता है । यहाँ तक कि पूज्यपाद, भट्टाकलंक, विद्यानन्द आदि टीकाकारांने भी यही पाठ अपनाया है । किन्तु धवला और जयधवला दोनों टीकाओं में श्री वीरसेनस्वामीने उक्त पाठ को ही स्थान दिया है । इस अन्तर का कारण अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है । (१) धवला १ भाग की प्रस्ता० पृ० ७० । ( २ ) प्रे० का० पृ० ५८५७, ६३४६ तथा मुद्रित १ भा० पृ० ३८६ । (३) प्रे० का० पृ० १८५८ । (४) प्रे० पृ० १८७३, २५२४ । (५) मुद्रित १ भा० पृ० १४ । (६) प्रे० का० पृ० ११५ १३९४, १४०२, १६१३, २०८९, २३७५, २४७४ । (७) मुद्रित १ भा० पृ० १७ । (८) पृ० २०९ । (ह) " प्रमाणनयैर्वस्त्वधिगमः इत्यनेन सूत्रेणापि नेवं व्याख्यानं विघटते ।" ध० आ० प० ५४२ । ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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