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________________ प्रस्तावना हम चूर्णिसूत्रोंका परिचय कराते हुए लिख पाये हैं। चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान करते समय वे उनके किसी भी अंशको दृष्टिसे ओझल नहीं होने देते। यहां तक कि यदि किन्हीं चूर्णिसूत्रोंके आगे १, २ श्रादि अङ्क पड़े हुए हों तो उन तकका भी स्पष्टीकरण करदेते हैं कि यहां ये अंक क्यों डाले गये हैं ? उदाहरणके लिये अर्थाधिकारके प्रकरणमें प्रत्येक अर्थाधिकार सूत्रके आगे पड़े हुए अंकोंकी सार्थकताका वर्णन इसी भागमें देखनेको मिलेगा। जहां कहीं चूर्णिसूत्र संक्षिप्त होता है वहां वे उसके व्याख्यानके लिये उच्चारणावृत्ति वगैरहका अवलम्बन लेते हैं, और जहां उसका अवलम्बन लेते हैं वहां उसका स्पष्ट निर्देश कर देते हैं। जयधवलाकी व्याख्यानशैलीकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जयधवलाकार गाथासूत्रकारका, चूर्णिसूत्रकारका, अन्य किसी आचार्यका या अपना किसी सम्बन्धमें जो मत देते हैं वह दृढ़ताके साथ अधिकारपूर्वक देते हैं। उनके किसी भी व्याख्यानको पढ़ जाइये, किसीमें भी ऐसा प्रतीत न होगा कि उन्होंने अमुक विषयमें झिझक खाई है। उनके वर्णनकी प्राञ्जलता और युक्तिवादिताको देखकर पाठक दंग रह जाता है और उसके मुखसे वरबस यह निकले विना नहीं रहता कि अपने विषयका कितना प्रौढ असाधारण अधिकारी विद्वान था इसका टीकाकार। वह अपने कथनके समर्थन में प्रमाण दिये बिना आगे बढ़ते ही नहीं, उनके प्रत्येक कथनके साथ एक 'कुदो' लगा ही रहता है । 'कुदो' के द्वारा इधर प्रश्न किया गया और उधर तड़ाक से उसका समाधान पाठकके सामने आगया । फिर भी यदि किसी 'कुदो' की संभावना बनी रही तो शंका-समाधानकी झड़ी लग जाती है। जब वे समझ लेते हैं कि अब किसी 'कूदों की गंजाइश नहीं है तन कहीं आगे बढ़ते हैं। उनके प्रश्नोंका एक प्रकार है-'तं कुवोणव्वदे' । जिसका अर्थ होता है कि तुमने यह कैसे जाना ? इस प्रकारके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए टीकाकार जहांसे उन्होंने वह बात जानी है उसका उल्लेख कर देते हैं। किन्तु कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जिनके बारेमे कोई शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। उनके बारेमें वे जो उत्तर देते हैं वही उनकी दृढ़ता, बहज्ञता और आत्मविश्वासका परिचायक है। यथा, इस प्रकारके एक प्रश्नका उत्तर देते हुए वे लिखते हैं ___ “णत्थि एत्थ अम्हाणं विसिट्ठोवएसो किंतु एक्केक्कम्हि फालिट्ठाणे एक्को वा दो वा उक्कस्सेण असंखेज्जा वा जीवा होंति ति अम्हाणं णिच्छनो।" ज० ५० प्रे० पृ १८७८ । अर्थात्-'इस विषयमें हमें कोई विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं है, किन्तु एक एक फालिस्थानमें एक अथवा दो अथवा उत्कृष्टसे असंख्यात जीव होते हैं ऐसा हमारा निश्चय है।" एक दूसरे प्रश्नके उत्तरमें वे कहते हैं"एल्थ एलाइरियवच्छयस्स णिच्छओ" ज० ५० प्रे० १० १९५३ । "इस विषयमें एलाचार्यके शिष्य अर्थात् जयधवलाकार श्रीवीरसेनस्वामीका ऐसा निश्चय है।" जो टीकाकार उपस्थित विषयों में इतने अधिकार पूर्वक अपने मतका उल्लेख कर सकता है उसकी व्याख्यानशैलीकी प्राञ्जलतापर प्रकाश डालना सूर्यको दीपक दिखाना है। किन्तु इससे यह न समझ लेना चाहिये कि टीकाकारने आगमिक विषयों में मनमानी की है। आगमिक परम्पराको सुरक्षित रखनेकी उनकी बलवती इच्छाके दर्शन उनकी व्याख्यानशैलीमें पद पदपर होते हैं। हम लिख आये हैं कि जयधवलामें एक ही विषयमें प्राप्त विभिन्न आचार्योंके विभिन्न उपदेशांका उल्लेख है। उनमेंसे अमुक उपदेश असत्य है और अमुक उपदेश सत्य है ऐसा जयधवलाकारने कहीं भी नहीं लिखा। उदाहरणके लिये इसी भागमें आगत भगवान महाबीरके कालकी चर्चाको ही ले लीजिये। एक उपदेशके अनुसार भगवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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