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________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत हैं। मणि और मूंगेका यह मेल सचमुच हृदयहारी है। इस सिद्धान्त समुद्रमें गोता लगाने पर जब पाठककी दृष्टि प्राकृत भारतीरूपी मणियोंपरसे उतराती हुई संस्कृतरूपी प्रवालके दानोंपर पड़ती है तो उसे बहुत ही अच्छा मालूम होता है। धवलाकी अपेक्षा जयधवला प्राकृतबहुल है। इसमें प्रायः दार्शनिक चर्चाओं और व्युत्पत्ति आदिमें ही संस्कृत भाषाका उपयोग किया है । सैद्धान्तिक चर्चाओंके लिये तो प्रायः प्राकृतका ही अवलम्बन लिया है। किन्तु फिर भी दोनों भाषाओंके उपयोगकी कोई परिधि नहीं है। ग्रन्थकार प्राकृतकी मणियोंके बीचमें जहां कहीं भी संस्कृतके प्रवालका मिश्रण करके उसके सौन्दर्यको द्विगुणित कर देते हैं। ऐसे भी अनेक वाक्य मिलेंगे जिनमें कुछ शब्द प्राकृतके और कुछ शब्द संस्कृतके होंगे। दोनों भाषाओंपर उनका प्रभुत्व है और इच्छानुसार वे दोनोंका उपयोग करते हैं। उनकी भाषाका प्रवाह इतना अनुपम है कि उसमें दूर तक प्रवाहित होकर भी पाठक थकता नहीं है, प्रत्युत उसे आगे बढ़नेकी ही इच्छा होती है। ___टीकाकारका भाषापर जितना प्रभुत्व है उससे भी असाधारण प्रभुत्व तो उनका ग्रन्थमें चर्चित विषयपर है। जिस विषयपर वे लेखनी चलाते हैं उसमें ही कमाल करते हैं। ऐसा मालूम होता है मानों किसी ज्ञानकुबेरके द्वारपर पहुंच गये हैं जो अपने अटूट ज्ञानभण्डारको लुटानेके लिये तुला बैठा है। वह किसीको निराश नहीं करना चाहता और म लिये सिद्धान्तकी गहन चर्चाओंको शङ्काएं उठा उठाकर इतना स्पष्ट कर डालना चाहता है कि बद्धि में दरिद्रसे दरिद्र व्यक्ति भी उसके द्वारसे कुछ न कुछ लेकर ही लौटे। वह शब्दों और विकल्पोंके जालमें डालकर अपने पाठकपर अपनी विद्वत्ताकी धाक जमाना नहीं चाहता, किन्तु चर्चित विषयको अधिकसे अधिक स्पष्ट करके पाठकके मानसपर उसका चित्र खींच देना चाहता है। यही उसकी रचना शैलीका सौष्ठव है। इस लिये जयधवलाके अन्तका निम्न पद्य जयधवलाकारने यथार्थ ही कहा है "होइ सुगमं पि दुग्गममणिवुणवक्खाणकारदोसेण। जयधवलाकुसलाणं सुगमं वि य दुग्गमा वि अत्थगई ॥७॥" अर्थात्-अनिपुण व्याख्याताके दोषसे सुगम बात भी दुर्गम हो जाती है। किन्तु जयधवलामें जो कुशल हैं उनको दुर्गम अर्थका भी ज्ञान सुगम हो जाता है। वास्तवमें जयधवलाकार कुशल व्याख्याता थे और उन्होंने अपनी रुचिकर व्याख्यानशैलीसे दुर्गम पदार्थों को भी सुगम बना दिया है, जैसा कि आगेके लेखसे स्पष्ट है। हम पहले लिख आये हैं कि जयधवला कोई स्वतंत्र रचना नहीं है किन्तु कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रोंका सुविशद व्याख्यान है । जब कि कसायपाहुड़ २३३ गाथाओंमें निबद्ध है और चणिसूत्र ६ हजार श्लोक प्रमाण है तब जयधवला ६० हजार श्लोक प्रमाण है। अर्थात् जयधवला की चूणिसूत्रोंसे उनकी टीकाका प्रमाण प्रायः दसगुना है। इसका कारण उसकी रचनाव्याख्यान शैलोकी विशदता है। जिसका स्पष्ट आभास उनकी व्याख्यानशैलीमें मिलती है। शैली- अतः जरा उनकी व्याख्यानशैलीपर ध्यान दीजिये। __ जयधवलाकार सबसे पहले स्वतंत्र भावसे गाथाका व्याख्यान करते हैं। उसके पश्चात् चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान करते हैं । गाथाका व्याख्यान करते हुए वे चूर्णिसूत्रोंपर आश्रित नहीं रहते, किन्तु गाथाओंका अनुगम करके गाथासूत्रकारका जो हृद्य है उसे ही सामने रखते हैं और जहां उन्हें गाथासूत्रकारके आशयसे चूर्णिसूत्रकारके आशयमें भेद दिखाई देता है वहां उसे वे स्पष्ट कर देते हैं और उसका कारण भी बतला देते हैं। जैसा कि अधिकारोंके मतभेदके सम्बन्धमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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