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प्रस्तावना
जयधवलाको अन्तिम प्रशस्तिमें कुछ पद्य ऐसे आते हैं जिनसे जयधवलाकी रचनाशैलीपर रचनाशैली- अच्छा प्रकाश पड़ता है। उनमें से एक पद्य इस प्रकार है
"प्रायःप्राकृतभारत्या क्वचित् संस्कृतमिश्रया।
मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रन्थविस्तरः ॥३७॥". इसमें बतलाया है कि इस विस्तृत नन्थकी रचना प्रायः प्राकृत भारतीमें की गई है, बीचमें कहीं कहीं उसमें संस्कृतका भी मिश्रण होगया है । प्राकृतके साथ संस्कृतका यह मेल ऐसा प्रतीत होता है मानों मणियोंकी मालाके बीच में कहीं कहीं मूंगेके दाने पिरो दिये गये
___टीका-............ किं कृत्वा, अधीत्य-पठित्वा । कम्, अर्थसंग्रहम्-उद्धारग्रन्थम् । उपश्रुत्य सूत्रमपि, किंविशिष्टम् , प्राङ्गम्-प्राचाराङ्गादि द्वादशाङ्गाश्रितम् । न केवलमाङ्ग पौवं च चतुर्दशपूर्वगतश्रुताश्रितम् ॥२-२१॥
___ इस श्लोकमे मिथ्यादृष्टिकी पाठ दीक्षान्वयक्रियाओंका वर्णन करते हुए बतलाया है कि धर्माचार्य अथवा गृहस्थाचार्यके उपदेशसे जीवादिक तत्त्वोंको जानकर, पञ्च नमस्कार महामन्त्रके धारण पूर्वक देशव्रतकी दीक्षा लेकर, कुदेवोंका त्याग करके, और न केवल उद्धार ग्रन्थोंको ही पढ़कर, अपि तु बारह अङ्ग और चौदह पूर्वसे सम्बन्ध रखनेवाले सूत्र ग्रन्थोंको भी पढ़कर इतर मतके शास्त्रोंको अध्ययन करने वाला जो पुरुष प्रत्येक अष्टमी और प्रत्येक चतुर्दशीकी रात्रिमें प्रतिमायोग धारण करके पापोंका नाश करता है वह धन्य है।
इसमें जब इतर धर्मको छोड़कर जैनधर्मकी दीक्षा लेनेवाले श्रावकके लिए भी ऐसे शास्त्रोंके पढ़नेका विधान किया है जो द्वादशाङ्गसे साक्षात् सम्बन्ध रखते है, तब यह कैसे माना जा सकता है कि सिद्धान्तसे मतलब उपलब्ध सिद्धान्त ग्रन्थोंसे ही है ? उपलब्ध सिद्धान्तग्रन्थ तो पौर्व ग्रन्थ हैं जिनके पढ़नेका ऊपर स्पष्ट विधान किया है।
शायद कहा जाये कि पं० आशाधरजी उपलब्ध सिद्धान्त ग्रन्थोंसे अपरिचित थे इसलिये उन्होंने अपनी टीकामें सिद्धान्तका अर्थ द्वादशाङ्गसूत्ररूप परमागम कर दिया है । किन्तु ऐसा कहना अनुचित है, क्योंकि अपने अनगारधर्मामृतकी टीकामें उन्होंने प्रथम सिद्धान्तग्रन्थ षट्खण्डागमसे एक सूत्र उद्धृत किया है । यथा
"उक्तञ्च सिद्धान्तसूत्रे—'प्रादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तिउणवं चदुस्सिरं बारसावत्तं चेदि ।" मनगार पृ० ६३८ ।
यह विद्वानोंसे अपरिचित नहीं है कि पं० आशाधरजी गृहस्थ थे। जब पं० आशाधरजी श्रावकको सिद्धान्तके अध्ययनका अनधिकारी बतलाकर स्वयं गृहस्थ होते हुए भी उपलब्ध सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन कर सकते है तो इससे स्पष्ट है कि सिद्धान्तसे मतलब इन सिद्धान्त ग्रन्थोंसे नहीं है। अतः उन्हें विद्वान् और शास्त्रस्वाध्यायके प्रेमी श्रावक बड़े प्रेमसे पढ़ सकते है। उनकी रचना ही इस शैलीमें की गई हैं कि मन्दसे मन्द बद्धि जीवोंका भी उपकार हो सके और वे भी उसे सरलतासे समझ सकें। जयधवलाकारने जहां कहीं विस्तारसे वर्णन किया है वहां स्पष्ट लिख दिया है कि मन्दबुद्धिजनोंके अनग्रहके लिए ऐसा किया जाता है । इस पहले खण्ड में ही पाठक ऐसे अनेक उल्लेख पायेंगे। यदि इनका पठन-पाठन श्रावकोंके लिये वजित होता तो जयधवलाकार जगह जगह "मंदबुद्धिजणाणुग्गहठ्ठ" न लिखकर कमसे कम उनके पहले मुनि पद जरूर लगा देते। किन्तु प्राणिमात्रके उपकारकी भावनासे प्रेरित होकर शास्त्र रचना करने वाले उन उदार जैनाचार्योंने ऐसा नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि उन्हें पढ़कर सब भाई जिन बाणीके कुछ कणोंका रसास्वादन करके आत्मिक सुखमें निमग्न होनेकी चेष्टा कर सकते हैं। तथा इन्हें सिद्धान्तग्रन्थ क्यों कहा जाता है इसे भी जयधवलाकारने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है । अतः केवल सिद्धान्त कहे जानेके कारण गृहस्थोंके लिए इनका पठन-पाठन निषिद्ध नहीं ठहराया जा सकता।
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