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जयधवलासहित कषायप्राभृत
इस शङ्का-समाधानसे यह स्पष्ट है कि जो पश्चिमस्कन्ध महाकर्मप्रकृतिप्राभृतसे सम्बद्ध है उसका कथन कसायपाहुडके अन्तमें चूर्णिसूत्रकारने इसलिये किया है कि उसके विना कसायपाहुडका चारित्रमोहकी क्षपणा नामका अधिकार अपूर्ण सा ही रह जाता है । जयधवलाकारका यह भी कहना है कि यह पश्चिमस्कन्धनामका अधिकार सकल श्रुतस्कन्धके चूलिका रूपसे स्थित है अतः उसे शास्त्रके अन्तमें अवश्य कहना चाहिये । इस पश्चिमस्कन्धमें अघातिकोंके क्षयके द्वारा सिद्धपर्यायकी प्राप्ति करनेका कथन रहता है। और जिसके अन्तमें सिद्धांका वर्णन हो वही सिद्धान्त है। इसलिये धवला और जयधवलाको सिद्धान्त ग्रन्थ भी कहते हैं । यहां यह स्मरण रखना चाहिये कि प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ षटखण्डागमका उद्भव तो महाकमप्रकृति प्राभृतसे ही हुआ है अतः उसके अन्तमें तो पश्चिमस्कन्धे अधिकार होना आवश्यक ही है किन्तु कसायपाहुडका उद्गम महाकर्मप्रकृति प्राभृतसे नहीं हुआ है और इसलिये उसके अन्तमें जो पश्चिमस्कन्धका वर्णन किया गया है वह इसलिये किया है कि उसके विना उसकी सिद्धान्त संज्ञा नहीं बन सकती थी, क्योंकि सिद्धोंका वर्णन कसायपाहुडमें नहीं है। इस विवरणसे पाठक यह जान सकेंगे कि इन ग्रन्थोंको सिद्धान्त क्यों कहा जाता है ?
सिद्धान्त शब्द पुल्लिंग है और धवला जयधवला नाम स्त्रीलिङ्ग हैं। स्त्रीलिङ्ग शब्दके साथ पुल्लिंग शब्दकी सङ्गति ठीक बैठती नहीं । इसलिये धवला और जयधवलाको धवल और जयधवल रूप देकरके धवल सिद्धान्त और जयधवल सिद्धान्त नाम प्रचलित हो गया है।
(१) "सिद्धान्तु धवलु जयधवलु णाम।" महापु० १,९,८,।
(२) एक दो विद्वानोंका विचार है कि कुछ श्रावकाचारोंमें श्रावकोंके लिए जिन सिद्धान्त ग्रन्थोंके अध्ययनका निषेध किया गया है, वे सिद्धान्त ग्रन्थ यही हैं । अतः गृहस्थोंको उनके पढ़नेका अधिकार नहीं है । यह सत्य है कि कुछ श्रावकाचारोंमें श्रावकोंको सिद्धान्तके अध्ययनका अनधिकारी बतलाया है किन्तु उस सिद्धान्तका आशय इन सिद्धान्त ग्रन्थोंसे नहीं है। जिन श्रावकाचारोंमें उक्त चर्चा पाई जाती है उनमेंसे एकके सिवा अन्य किसी भी श्रावकाचारके रचयिताने यह नहीं लिखा कि सिद्धान्तसे उनका क्या प्राशय है ? केवल पंडितप्रवर श्री आशाधरने अपने सागारधर्मामृतके सातवें अध्याय में श्रावकोंको सिद्धान्तके अध्ययनका अनधिकारी बतलाकर उसकी टीकामें स्पष्ट किया है कि सिद्धान्तका क्या अभिप्राय है ? सागारधर्मामृतका वह श्लोक और उसकी टीकाका आवश्यक अंश इस प्रकार है
"श्रावको वीरचर्याहःप्रतिमातापनादिषु ।
स्यानाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥५०॥" टीका-न स्यात् । कोऽसौ, श्रावकः, किंविशिष्टः, अधिकारी योग्यः । क्व, वीरेत्यादि . . . . . . । तथा सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्ररूपस्य, रहस्यस्य च प्रायश्चित्तशास्त्रस्याध्ययने पाठे श्रावको नाधिकारी स्यादिति सम्बन्धः ॥५०॥
इस श्लोकमें बतलाया है कि श्रावक वीरचर्या, दिनप्रतिमा. आतापन आदि योगका और सिद्धान्त तथा रहस्यके अध्ययनका भी अधिकारी नहीं है । तथा टीकामे सिद्धान्तका अर्थ सूत्ररूप परमागम किया है। जिसका मतलब यह है कि श्रावक गणधर देवके द्वारा रचित बारह अङ्गों और चौदह पूर्वोका अध्ययन नहीं कर सकता है। उनके अध्ययनका अधिकार मुनिजनोंको ही है। किन्तु उनसे उद्धृत जो उद्धारग्रन्थ हैं उन्हें वह पढ़ सकता है और उनके पढ़नेका विधान भी सागारधर्मामृतमे ही किया है। यथा
"तत्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशव्रतं, तद्दीक्षानधृतापराजितमहामन्त्रोऽस्तदुर्दैवतः । माङ्ग पौर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रान्तरः, पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन्धन्यो निहन्त्यंहसी ॥२१॥"
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