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________________ प्रस्तावना आवश्यकता नहीं रही। धवलाके पहले जय विशेषण लगा कर उसका नाम जयधवला रख लिया गया। और टीकाका प्रारम्भ करते हुए 'जयइ धवलंग' आदि लिखकर उसकी सूचना दे दी गई। इस विवरणसे इस टीकाका नाम जयधवला क्यों रखा गया ? इस प्रश्न पर प्रकाश पड़ता है। धवलाकी प्रतियोंके अन्तमें एक वाक्य पाया जाता है-'एवं सिद्धान्तार्णवं पूर्तिमगमत् ।' जयधवला अर्थात् इस प्रकार सिद्धान्तसमुद्र पूर्ण हुआ। उसके पश्चात निम्न गाथा दी हुई हैसिद्धान्त ग्रन्थ “जस्स सेसाएण (पसाएण) मए सिद्धांतमिदि (मिदं) हि अहिलहुंदी। महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीरसेणस्स ॥१॥" अर्थात्-'जिसके प्रसादसे मैने यह सिद्धान्त ग्रन्थ लिखा, वह एलाचार्य मुझ वीरसेन पर प्रसन्न हो ।' ऊपरके दोनों उल्लेखोंमें धवला टीकाको सिद्धान्त ग्रन्थ बतलाया है। किन्तु उसे सिद्धान्त संज्ञा क्यों दी गई यह नहीं बतलाया। जयधवला टीकाके अन्तमें इसका कारण बतलाते हुए लिखा है "सिद्धानां कीर्तनादन्ते यः सिद्धान्तप्रसिद्धवाक । सोऽनाद्यनन्तसन्तानः सिद्धान्तो नोऽवताच्चिरम् ॥१॥" अर्थ-'अन्तमें सिद्धोंका कथन किये जानेके कारण जो सिद्धान्त नामसे प्रसिद्ध है, वह अनादि-अनन्त सन्तानवाला सिद्धान्त हमारी चिरकाल तक रक्षा करे ॥१॥ इस श्लोकसे यह स्पष्ट है कि चूंकि धवला और जयधवला टीकाके अन्तमें सिद्धोका कथन किया गया है इसलिये उन्हें सिद्धान्त कहा जाता है। उसके, विना कोई ग्रन्थ सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। और सम्भवतः इसी लिये कसायपाहुडके अन्तमें सिद्धोंकी चर्चा की गई है। बात यह है कि कसायपाहुडका व्याख्यान समाप्त करके जयधवलाकारने चूर्णिसूत्रमें निरूपित पश्चिमस्कन्ध नामके अधिकारका वर्णन किया है। घातियाकर्मोके क्षय हो जानेपर अघातियाकर्म स्वरूप जो कर्मस्कन्ध पीछेसे रह जाता है उसे पश्चिमस्कन्ध कहते हैं। क्योंकि उसका सबसे पीछे क्षय होता है इसलिये उसका नाम पश्चिमस्कन्ध न्याय्य है, आदि । इस पश्चिमस्कन्ध अधिकारका व्याख्यान करते हुए ग्रन्थकारने लिखा है कि 'यहाँ ऐसी आशङ्का न करना कि कसायपाहुडके समस्त अधिकारों और गाथाओंका विस्तारसे वर्णन करके, उसे समाप्त करनेके पश्चात् इस पश्चिमस्कन्ध नामक अधिकारका यहाँ समवतार क्यों किया ? क्योंकि क्षपणा अधिकारके सम्बन्धसे ही पश्चिमस्कन्धका अवतार माना गया है । और अघातिकर्मोंकी क्षपणाके विना क्षपणाधिकार सम्पूर्ण होता नहीं है। अतः क्षपणा अधिकारके सम्बन्धसे ही यहाँ उसके चूलिका रूपसे पश्चिमस्कन्धका वर्णन किया जाता है इसलिये यह सुसम्बद्ध ही है। तथा ऐसी भी आशंका न करना कि यह अधिकार तो महाकर्मप्रकृति प्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोंसे सम्बद्ध है अतः उसका यहाँ कसायपाहुडमें कथन क्यों किया ? क्योंकि उसको दोनों ग्रन्थोंसे सम्बद्ध मानने में कोई बाधा नहीं पाई जाती है। (१) " पश्चाद्भवः पश्चिमः । पश्चिमश्चासौ स्कन्धश्च पश्चिमस्कन्धः । खीणेसु घादिकम्मेसु जो पच्छा समवलब्भइ कम्मक्खंधो अघाइचउक्कसरूवो सो पच्छिमक्खंधो ति भण्णदे; खयाहिमुहस्स तस्स सव्वपच्छिमस्स तहा ववएससिद्धीए णाइयत्तादो।" कसायपा० प्रे. पृ० ७५६७ । (२) जयधवला, प्रे. का. पृ. ७५६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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